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किसी भी संस्थान के पूर्ववर्ती छात्रों की पेशेवर सफलता उस संस्थान से मिलने वाली उपाधि का मोल तय करती है। इसके अलावा दूसरी बातें भी हैं, लेकिन ये उपाधि का मोल तय करने में सबसे अहम यही है। लेकिन सिक्के का दूसरा पहलु ये है कि उपाधि का मोल पूर्ववर्ती और वर्तमान सभी छात्रों की सफलता का आधार तय करता है। समझने की कोशिश करिए। ...जोशारू, हमारे-आपके भविष्य को सीधा प्रभावित कर सकता है...

Friday, December 31, 2010

वक्त से तेज खबरों का साल

भारतीय मीडिया के लिए यह साल तकरीबन ‘डिकेंसियन’ रहा : ‘गुजरा हुआ वक्त बेहतरीन था, लेकिन शायद वह बदतरीन भी था’ (चाल्र्स डिकेंस के उपन्यास अ टेल ऑफ टू सिटीज का प्रसिद्ध वाक्य)।

एक मुख्यमंत्री को इस्तीफा देने को मजबूर होना पड़ा, एक केंद्रीय मंत्री को अपना पद छोड़ना पड़ा, वरिष्ठ राजनेताओं के घर पर छापे मारे गए : ऐसा पिछली बार कब हुआ था, जब भारतीय मीडिया के खाते में एक ही साल में इतनी सारी ‘कामयाबियां’ दर्ज हों? लेकिन जब हम पत्रकारिता के इस सख्त और गैरसमझौतावादी रुख का जश्न मना रहे थे, तभी नीरा राडिया के टेप्स सामने आए और तस्वीर बदल गई। चंद माह पहले तक देश के सत्ता तंत्र को आड़े हाथों लेने के लिए मीडिया की पीठ थपथपाई जा रही थी, लेकिन अब उसे सत्ता का साझेदार करार दिया जा रहा है। सच्चाई, जैसा कि अक्सर होता है, इन दोनों स्थितियों के बीच में है।

एक अर्थ में भारतीय मीडिया का यह उत्थान और पतन लगभग अवश्यंभावी था। पिछले एक दशक की अवधि में हमारे समाचार मीडिया ने लंबा सफर तय किया है। वर्ष 2000 में केवल एक न्यूज चैनल को सरकार की हरी झंडी थी। आज देश में 500 से ज्यादा चैनल हैं, जिनमें से एक तिहाई न्यूज चैनल हैं। सौ से भी ज्यादा चैनल सरकारी अनुमति की प्रतीक्षा कर रही हैं। इसमें रोजाना बिकने वाली अखबारों की करोड़ों प्रतियों और 80 लाख इंटरनेट उपयोगकर्ताओं को भी जोड़ लें तो हमारे सामने समाचारों से संचालित होने वाले एक समाज की छवि उभरती है। जब इतने बड़े पैमाने पर खबरों का उपभोग होता हो तो मीडिया को हमारी जिंदगी में एक ‘लार्जर दैन लाइफ’ भूमिका निभानी ही है।

दो सप्ताह पहले अहमदाबाद में एक न्यूज सेमिनार में जरा गुस्साए हुए श्रोताओं में से एक ने मुझसे पूछा : ‘क्या आप मीडियावाले अपने आपको खुदा समझते हैं?’ मैंने फौरन कहा कि मैं नश्वर मनुष्य हूं, लेकिन मुझे यह भी महसूस हुआ कि दलीलें देने का कोई फायदा नहीं है। समाचार उपभोक्ता मीडिया से यह उम्मीद करते हैं कि वे देश की ढेरों समस्याओं का समाधान कर देंगे, फिर चाहे वह भ्रष्टाचार हो, आतंकवाद हो या फिर उनके पड़ोस में फैली गंदगी की सफाई करवाना ही क्यों न हो। लेकिन इसी मीडिया से यह भी अपेक्षा की जाती है कि वह थोड़ी विनम्रता बरते, अपने हठ और दुराग्रह को त्याग दे और प्रसिद्धि की चकाचौंध से अपने को दूर रखे।

नए मीडिया के सामने यह मुश्किल विकल्प रखा गया है कि वह या तो खुद को अवाम का नया मसीहा सिद्ध करे या फिर करोड़ों समाचार उपभोक्ताओं का एक गुलाम बनकर रह जाए, जिसका अपना कोई चेहरा नहीं है।
हममें से कुछ पत्रकार इन विरोधाभासी अपेक्षाओं में उलझकर रह गए हैं। अब न्यूज एंकरों के लिए यह असामान्य बात नहीं रह गई है कि वे हर रात टीवी चैनल पर जज, ज्यूरी या जल्लाद की भूमिका निभाएं।

अब पत्रकार खबरों के ‘निर्लिप्त’ और ‘निरपेक्ष’ पर्यवेक्षकभर नहीं रह गए हैं। पत्रकारों ने अपने लिए अब यह विशेष अधिकार प्राप्त कर लिया है कि हम ‘देश’ की आवाज बनें। उन्हें इस बात से शायद फर्क नहीं पड़ता कि कुछ लोगों के भिन्न विचार भी हो सकते हैं। चैट शो के गुरु लैरी किंग ने बहुत संक्षेप में न्यूज टेलीविजन का नया मंत्र दिया है : ‘सभी चैट शो के होस्ट अपना ही इंटरव्यू लेते हैं। शो के मेहमान तो महज एंकरों को सहारा देने के लिए होते हैं।’

कभी-कभी हम पत्रकार पवित्रता का लबादा ओढ़ लेते हैं और समाचार के मंच से उपदेश देना शुरू कर देते हैं। लेकिन यह मुसीबत को बुलावा देने जैसा है। क्योंकि बाद में जब मीडिया अपने कर्तव्यों का निर्वहन नहीं कर पाता, तब उस पर जवाबी हमला बोले जाने में देर नहीं लगती। नीरा राडिया टेप्स के प्रकाशन के बाद ठीक यही हुआ है। ब्लॉग और अन्य माध्यमों में मीडिया के प्रति काफी गुस्सा जताया जा रहा है। लगता है यह गुस्सा एक निराशा का परिणाम है, क्योंकि मीडिया को देश का पहरेदार माना जाता है। अगर मीडिया जनता का प्रवक्ता है तो जनता भी यह मानती है कि उसे मीडिया को कठघरे में खड़ा करने का अधिकार है। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि अगर हमारी निजी बातचीतों को सार्वजनिक कर दिया जाए तो हममें से अधिकतर लोग असहज अनुभव करेंगे। चूंकि मीडिया समाज के लिए उत्तरदायित्व के ऊंचे मानक तय करता है, लिहाजा उससे भी यह अपेक्षा की जाती है कि वह खुद भी इन्हीं मानदंडों पर खरा उतरेगा।

देखा जाए तो एक मायने में यह एक सकारात्मक परिवर्तन है। पिछले दशक में हुई मीडिया क्रांति के दौरान खबरों की उन्मादी प्रतिस्पर्धा में पत्रकारिता के नियम-कायदों को ताक पर रख दिया गया। सतही और अक्सर साक्ष्यहीन आरोपों को बिना किसी मानहानि के भय के प्रसारित कर दिया गया या अखबार में छाप दिया गया। जब समाचार महज एक घंटे बाद इतिहास बनकर रह जाएं तो सच्चाई सनसनी के आगे घुटने टेक देती है। यह मीडिया की विश्वसनीयता के लिए एक चिंतनीय स्थिति है। भ्रष्ट तंत्र को उसकी नींद से जगाने के लिए हम कई बार ‘मीडिया ट्रायल’ की जरूरत महसूस करते हैं, लेकिन अगर ‘मीडिया ट्रायल’ अपने आपमें एक साध्य बनकर रह जाए, यदि समाचार व्यक्तिगत पूर्वाग्रहों के जरिए बनकर रह जाएं, तो यह हमारी पेशेवर निष्ठा के लिए भी एक खतरा होगा।

इसीलिए अगर राडिया टेप्स के प्रकाशन के बाद हो रही मीडिया की आलोचना उसे अपनी कार्यप्रणाली में जरूरी सुधार करने को मजबूर करती है तो हमें इसका स्वागत करना चाहिए। मीडिया के उदय ने पत्रकारों को जमीनी हकीकत से दूर कर दिया था। हम अपने संस्थान से जुड़ी जिम्मेदारियां भी भूल गए। हम भूल गए कि हम मुक्त पत्रकारिता नामक एक संस्था के दास हैं। हमारा काम पत्रकारिता के आदर्शो का निर्वहन करना है, अपने व्यक्तिगत हितों की पूर्ति करना नहीं और राजनीतिक या कॉपरेरेट हितों की पूर्ति करना तो कतई नहीं।

फिर भी हमें याद रखना चाहिए कि मीडिया में चाहे कितनी ही बुराइयां क्यों न हों, लेकिन कुछ लोगों के आधार पर समूचे मीडिया को दोषी ठहराना ठीक नहीं है। मीडिया में सैकड़ों प्रतिबद्ध और ईमानदार पत्रकार भी हैं, जो बिना किसी डर या पक्षपात के हम तक सही खबर पहुंचाने के लिए कड़ी मेहनत करते हैं। इन्हीं लोगों के कारण पत्रकारिता की भावना आज भी जीवित है।

पुनश्च : राडिया टेप्स के प्रकाशन के बाद हाल ही में कराए गए एक पोल में ९७ फीसदी लोगों ने कहा कि वे पत्रकारों का भरोसा नहीं करते। एक अन्य पोल में मीडिया को रियल एस्टेट एजेंटों और राजनीतिज्ञों से कुछ ही विश्वसनीय बताया गया। नए साल में हमारा यह संकल्प होना चाहिए कि हम मीडिया के प्रति लोगों के मन में बनी विश्वसनीयता की खाई को पाटने का प्रयास करें।
लेखक:
राजदीप सरदेसाई ( सीएनएन 18 नेटवर्क के एडिटर-इन-चीफ हैं।)

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