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किसी भी संस्थान के पूर्ववर्ती छात्रों की पेशेवर सफलता उस संस्थान से मिलने वाली उपाधि का मोल तय करती है। इसके अलावा दूसरी बातें भी हैं, लेकिन ये उपाधि का मोल तय करने में सबसे अहम यही है। लेकिन सिक्के का दूसरा पहलु ये है कि उपाधि का मोल पूर्ववर्ती और वर्तमान सभी छात्रों की सफलता का आधार तय करता है। समझने की कोशिश करिए। ...जोशारू, हमारे-आपके भविष्य को सीधा प्रभावित कर सकता है...

Tuesday, June 28, 2011

मीडिया में प्रच्छन्न सवर्ण जातिवादी वर्चस्व है : एसपी सिंह

एक पुराना इंटरव्यू : 27 जून को महान पत्रकार एसपी सिंह की 14वीं पुण्यतिथि है. कुछ ही दिनों में 27 जून आ जाएगा. एसपी की याद में हम यहां उनसे लिया गया आखिरी इंटरव्यू प्रकाशित कर रहे हैं. यह इंटरव्यू अजीत राय ने लिया. इसका प्रकाशन 15 जून 1997 को जनसत्ता में हुआ था.
इस इंटरव्यू में एक सवाल के जवाब में एसपी सिंह ने टीवी के बारे में कहा है कि यहां लफ्फाजी और छल की गुंजाइश नहीं. आलस्य व मिथ्या पत्रकारिता यहां नहीं चल सकती जैसा कि कुछ लोग अनजान सूत्रों के हवाले से कुछ भी लिखते रहे हैं... एसपी के इस कथन को टीवी ने झुठला दिया है और दिखा दिया है कि टीवी में भी लफ्फाजी और छल की गुंजाइश है. यहां भी आलस्य व मिथ्या पत्रकारिता धड़ल्ले से चल रही है. लोग अनजान सूत्रों की जगह यूट्यूब के हवाले से कुछ भी दिखा दे रहे हैं. पर एसपी का कथन उस दौर के लिए जरूर प्रासंगिक था जब टीवी न्यूज की शुरुआत हुई और उस शुरुआती दौर में आदर्श व सरोकार पूरी तरह टीवी पर तारी था. एसपी के चेलों ने एसपी के गुजरने के बाद आदर्श व सरोकार के झीने आवरण को फाड़ डाला और शुरू कर दिया नंगा ब्रेक डांस. एसपी को याद करने के बहाने अगर टीवी न्यूज पर एक सार्थक बहस की शुरुआत हो सके तो हम सभी के सेहत के लिए फलदायी होगा. -यशवंत, एडिटर, भड़ास4मीडिया

  • आप प्रिंट मीडिया से इलेक्ट्राँनिक मीडिया में आ गए हैं। अपनी उपस्थिति में कैसा अंतर पाते हैं?
किसी माध्यम या संस्थान में निजी उपस्थिति का कायल मैं कभी नहीं रहा। मैंने जहां भी काम किया, टीम वर्क की तरह काम किया। अखबार में भी जब मैं था तो पहले पन्ने पर दस्तखत करके कुछ भी लिखकर छपने की वासना मुझमें नहीं रही। हिंदी में तो इसकी परंपरा ही रही है। मैं भी चाहता तो ऐसा अक्सर कर सकता था। अब टेलीविज़न के लिए काम करना मुझे रास आ रहा है। बतौर प्रोफेशन मैं यहां पहले से ज्यादा संतुष्ट हूं क्योंकि यहां लफ्फाजी और छल की गुंजाइश नहीं है। आलस्य और मिथ्या पत्रकारिता यहां नही चल सकती। जैसा कि कुछ लोग अनजान सूत्रों के हवाले से कुछ भी लिखते रहे हैं। यहां तो आप जो कुछ भी टिप्पणी करते हैं, उसे दिखाना पड़ता है। ये बात अलग है कि यहां ग्लैमर ज्यादा है।
  • आजकल हिंदी अखबारों पर संकट की हर जगह चर्चा हो रही है। आपको क्या लगता है ?
ये उनके घोर अज्ञान की अभिव्यक्ति है। हिंदी पत्रकारिता का स्वर्ण युग चल रहा है। हिंदी और भाषाई अखबारों की पाठक संख्या, पूंजी, विज्ञापन और मुनाफा लगातार बढ़ रहा है। हां, इस वृद्धि के बरबस उनके समाचार - विचार के स्तर को लेकर आप चिंतित हो सकते हैं। पर ये सब समय के साथ ठीक हो जाएगा। दूसरी ओर आज, दैनिक जागरण, अमर उजाला, राजस्थान पत्रिका, दैनिक भास्कर सहित अनेक क्षेत्रीय अखबार अपना विकास कर रहे हैं। जयपुर में भास्कर और पत्रिका की प्रतियोगिता से कीमतें नियंत्रित हुई हैं। गुणवत्ता भी सुधर जाएगी। सच तो ये है कि हिंदी पत्रकारिता अपने पैरों पर खड़ी हो रही है। हालांकि पेशे के रूप में अभूतपूर्व वृद्धि के कारण हिंदी पत्रकारिता में बड़ी मात्रा में खर - पतवार आ रहे हैं। लेकिन ये स्थिति स्थाई नहीं होगी।
  • इसी संदर्भ में कहा जा रहा है कि हिंदी अखबारों की विश्वसनीयता घट रही है।
भारतीय समाज में तुलसीदास के समय से ही त्राहि-त्राहि का भाव व्याप्त रहा है। पिछले 150 सालों से तो ये रोना और तेज हुआ है। हर आदमी बताता फिर रहा है कि संकट काल है। कम - से - कम मैं इस सामूहिक विलाप में शामिल नहीं हूं। भारतीय संस्कृति मूलत विलाप की संस्कृति रही है। नरेंद्र मोहन अखबार की बदौलत राज्यसभा पहुंच गए तो बड़ा शोर हो रहा है। 1952 से ही ये सब हो रहा है।
  • पत्रकारिता के मिशन बनाम प्रोफेशन होने पर भी बहस हो रही है। आप क्या सोचते हैं?
सरकारी सुविधाएं और पैसे लेकर निकलनेवाले अखबारों की सामाजिक प्रतिबद्धता क्या है? ये एक फरेब है, जो हिंदी में ज्यादा चल रहा है। पत्रकारिता कस्बे से लेकर राजधानी तक दलाली और ठेकेदारी का लाइसेंस देती है। मैंने किसी मिशन के तहत पत्रकारिता नहीं की। मेरी प्रतिबद्धिता अपने पेशे यानी पत्रकारिता के प्रति है। आजादी की लड़ाई के दौरान पत्रकारिता मिशन थी। इसलिए वस्तुपरक भी नहीं थी। मिशन की पत्रकारिता हमेशा सब्जेक्टिव होती है। यदि कोई पार्टी, संस्थान, आंदोलन मिशन की पत्रकारिता करे तो समझ में आती है। लेकिन नवभारत टाइम्स, जनसत्ता या हिंदुस्तान क्यों मिशन की पत्रकारिता करे?
  • मीडिया में वर्चस्व की संस्कृति को लेकर कुछ राजनेताओं ने अच्छा खासा विवाद खड़ा कर दिया है। कांशीराम द्वारा पत्रकारों की पिटाई का मामला ताजा उदाहरण है। आपने इससे अपने आपको अलग क्यों कर लिया?
उसमें जातिवादी ओवरटोन ज्यादा था। इसलिए मैं अलग हो गया। यदि आप इस पेशे में आए हैं, तो इसकी पेशागत परेशानियों का सामना करें। वरना कोई अतिसुरक्षित पेशा चुन लें। कल्पना कीजिए यही काम किसी सवर्ण ने किया होता तो क्या ऐसा ही विरोध होता? सवर्ण पत्रकारों ने इस घटना को दलित नेता को जलील करने के एक अवसर के रूप में इस्तेमाल किया। मीडिया में प्रच्छन्न सवर्ण जातिवादी वर्चस्व है। उत्तर भारत में तो अधिकतर अखबारों में सांप्रदायिक शक्तियां ही हावी हैं। पिछड़ों को सबक सिखाने का भाव आज भी ज्यादातर महान किस्म के पत्रकारों की प्रेरणा बना हुआ है। ये वर्चस्व चूंकि समस्त भारतीय समाज में है, इसलिए मीडिया में भी है।
  • साहित्य और पत्रकारिता के रिश्तों पर आपकी टिप्पणियां खासा विवाद पैदा करती रही हैं। क्या आप अब भी ऐसा मानते हैं कि साहित्यकारों ने पत्रकारिता में घालमेल कर रखा है?
भाषा की बात छोड़ दें तो विषयवस्तु या विचार के स्तर पर किसी भी साहित्यकार संपादक ने हिंदी पत्रकारिता को कोई ज्यादा मजबूत किया , ऐसा मैं नहीं मानता। लेकिन ये भी सच है कि आज हिंदी पत्रकारिता की अपनी भाषा बन रही है। सारी दुनिया में पत्रकारिता की भाषा को साहित्य ने अपनाया है। हमारे यहां उलटी गंगा बहाने की कोशिश होती रही। इसे दुराग्रह नहीं तो क्या कहेंगे कि पत्रकारिता की भाषा को साहित्यिक बना दिया जाए। आप बेशक जैसी मर्जी वैसी साहित्यिक पत्रकारिता करें। लेकिन बजट और विदेश नीति पर पत्रकारीय लेखन में आपकी दखलअंदाजी क्यों ? प्रिंट मीडिया के लिए भाषा और शैली की जरूरत है। लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि किसी बड़े विद्वान पंडित या साहित्यकार को संपादक बना दें। हिंदी में अक्सर लोग शिकायत करते हैं कि पत्रकारिता में साहित्य को तरजीह नहीं दी जाती। आप बताइए कि संसार के किस भाषा की पत्रकारिता में साहित्यिक खबरें प्रमुख रहती हैं। खबरों में बने रहने की ईच्छा वैसी ही वासना है , जैसा कि राजनेता पाले रखते हैं।
  • ऐसा कह कर आप पत्रकारिता के लिए साहित्य के महत्व को रद्द तो नहीं कर रहे हैं? क्या आप रघुवीर सहाय, अज्ञेय, धर्मवीर भारती, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, श्रीकांत वर्मा और अन्य अनेक साहित्यकारों के पत्रकारीय योगदानों को स्वीकार नहीं करते?
देखिए, एक बात साफ कर दूं कि मैं इन लोगों के प्रति बहुत श्रद्धा रखता हूं। साहित्य पढ़ना मेरी आदत है। जो लोग कविता लिखते हैं, वो बहुत कठिन और बड़ा काम करते हैं। मुझे खुद इस बात का अफसोस रहता है कि मैं कविताएं नहीं लिख पाता। ये मेरी असमर्थता है। लेकिन ये लोग सिर्फ अच्छे साहित्यकार होने की वजह से संपादक नहीं बने। ये लोग अपने समय के श्रेष्ठ पत्रकार थे। ये उस दौर में सामने आए, जब हिंदी पत्रकारिता दोयम दर्जे के हाथों में था। इन लोगों ने इसे नया चमकदार चेहरा दिया। साहित्य सृजन की एक श्रेष्ठ विद्या अजीत रायहै। जैसे चित्रकला, अभिनय, गायन, नृत्य आदि। फिर आप बहुत बड़े डॉक्टर, इंजीनियर, नेता, वकील या कुछ भी हों पर इसका मतलब ये नहीं कि आपको संपादक बना दिया जाए। महज इसलिए कि आप उस भाषा में लिखते हैं, जिसमें अखबार निकलता है।

Monday, June 20, 2011

पत्रकारों को वाजिब वेतन क्यों नहीं !

जस्टिस मजीठिया आयोग ने श्रमजीवी पत्रकारों के वेतनमान पर रिपोर्ट दी है. सबका दर्द सुनने-सुनाने वाले पत्रकारों के बड़े हिस्से को वेज बोर्ड के बारे में कुछ मालूम नहीं होता, इसका लाभ मिलना तो दूर. इसके बावजूद अखबार प्रबंधंकों ने वेज बोर्ड को मीडिया पर हमला बताकर हल्ला मचाना शुरू कर दिया है. जबकि मीडिया पर असली हमला तो पत्रकारों का भयंकर आर्थिक शोषण है. आखिर इतनी कठिन परिस्थितियों में लगातार काम करके भी एक पत्रकार किसी प्रोफेसर, सीए, इंजीनियर, डॉक्टर, आइएएस या कंप्यूटर इंजीनियर से आधे या चौथाई वेतन पर क्यों काम करे? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता चाहिए तो यह सवाल हर नागरिक और हर मीडियाकर्मी को पूछना चाहिए.
press
कोयलाकर्मियों और शिक्षक-कर्मचारियों की तरह मीडियाकर्मियों को भी अपने वेज बोर्ड के बारे में जागरूक होना चाहिए. वरना अखबार प्रबंधकों की लॉबी तरह-तरह से टेसुए बहाकर एक बार फिर पत्रकारों को अल्प-वेतनभोगी और बेचारा बनाकर रखने में सफल होगी.

आज जो अखबार प्रबंधक नये वेज बोर्ड पर आंसू बहा रहे हैं, उन्हें नहीं भूलना चाहिए कि उनके प्रोडक्ट यानी अखबार में जो चीज बिकती है- वह समाचार और विचार है. अन्य किस्म के उत्पादों में कई तरह का कच्चा माल लगता है. लेकिन अखबार का असली कच्चा माल यानी समाचार और विचार वस्तुतः संवाददाताओं और संपादनकर्मियों की कड़ी मेहनत, दिमागी कसरत और कौशल से ही आता है. इस रूप में पत्रकार न सिर्फ स्वयं कच्चा माल जुटाते या उपलब्ध कराते हैं, बल्कि उसे तराश कर बेचने योग्य भी बनाते हैं.

इस तरह देखें तो अन्य उद्योगों की अपेक्षा अखबार जगत के कर्मियों का काम ज्यादा जटिल होता है और उनके मानसिक-शारीरिक श्रम से कच्चा माल और उत्पाद तैयार होता है. तब उन्हें दूसरे उद्योगों में काम करने वाले उनके स्तर के लोगों के समान वेतन व अन्य सुविधाएं पाने का पूरा हक है. दुखद है कि मीडियाकर्मियों के बड़े हिस्से में इस विषय पर भयंकर उदासीनता का लाभ उठाकर अखबार प्रबंधकों ने भयंकर आर्थिक शोषण का सिलसिला चला रखा है.

जो अखबार 20 साल से महत्वपूर्ण दायित्व संभाल रहे वरीय उपसंपादक को 20-25 हजार से ज्यादा के लायक नहीं समझते, उन्हीं अखबारों में किसी चार्टर्ड एकाउंटेंट, ब्रांड मैनेजर या विज्ञापन प्रबंधक की शुरूआती सैलरी 50 हजार से भी ज्यादा फिक्स हो जाती है. सर्कुलेशन की अंधी होड़ में एजेंटों, हॉकरों और पाठकों के लिए खुले या गुप्त उपहारों और प्रलोभनों के समय इन अखबार प्रबंधकों को आर्थिक बोझ का भय नहीं सताता. चार रुपये के अखबार की कीमत गिराकर दो रुपये कर देने या महज एक रुपये में किलो भर रद्दी छापने या अंग्रेजी के साथ कूड़े की दर पर हिंदी का अखबार पाठकों के घर पहुंचाने में भी अखबार प्रबंधकों को गर्व का ही अनुभव होता है. लेकिन जब कभी पत्रकारों को वाजिब दाम देने की बात आती है, तब इसे मीडिया की स्वतंत्रता पर हमले जैसे हास्यास्पद तर्क से दबाने की कोशिश की जाती है.

आज इन मुद्दों पर एक सर्वेक्षण हो तो दिलचस्प आंकड़े सामने आयेंगे-
1. किस-किस मीडिया संस्थान में वर्किंग जर्नलिस्ट वेज बोर्ड लागू है?
2. जहां लागू है, उनमें कितने प्रतिशत मीडियाकर्मियों को वेज बोर्ड का लाभ सचमुच मिल रहा है?
3. मीडिया संस्थानों में प्रबंधन, प्रसार, विज्ञापन जैसे कामों से जुड़े लोगों की तुलना में समाचार या संपादन से जुड़े लोगों के वेतन व काम के घंटों में कितना फर्क है?
4. मजीठिया वेतन आयोग के बारे में कितने मीडियाकर्मी जागरूक हैं और इसे असफल करने की प्रबंधन की कोशिशों का उनके पास क्या जवाब है?
5. जो अखबार मजीठिया वेतन आयोग पर चिल्लपों मचा रहे हैं, वे फालतू की फुटानी में कितना पैसा झोंक देते हैं?

जो लोग यह कह रहे हैं कि पत्रकारों को वाजिब वेतन देने से अखबार बंद हो जायेंगे, वे देश की आखों में धूल झोंककर सस्ती सहानुभूति बटोरना चाहते हैं. जब कागज-स्याही या पेट्रोल की कीमत बढ़ती है तो अखबार बंद नहीं होते. दाम चार रुपये से घटाकर दो रुपये करने से भी अखबार चलते रहते हैं. हाकरों को टीवी-मोटरसाइकिल बांटने और पाठकों के घरों में मिठाई के डिब्बे, रंग-अबीर-पटाखे पहुंचाने से भी अखबार बंद नहीं होते. प्रतिभा सम्मान कार्यक्रमों और महंगे कलाकारों के रंगारंग नाइट शो से भी कोई अखबार बंद नहीं हुआ. शहर भर में महंगे होर्डिंग लगाने और क्रिकेटरों को खरीदने वाले अखबार भी मजे में चल रहे हैं. तब भला पत्रकारों को वाजिब मजूरी मिलने से अखबार बंद क्यों हों? इससे तो पत्रकारिता के पेशे की चमक बढ़ेगी और अच्छे, प्रतिभावान युवाओं में इसमें आने की ललक बढ़ेगी, जो आ चुके हैं, उन्हें पछताना नहीं होगा. इसलिए यकीन मानिये, मजीठिया वेतन बोर्ड के कारण कोई अखबार बंद नहीं होने जा रहा. वक्त है पत्रकारिता को वाजिब वेतन वाला पेशा बनाने का. सबको वाजिब हक मिलना चाहिए तो मीडियाकर्मियों को क्यों नहीं?

एक बात और. पत्रकारों की इस दुर्दशा के लिए मुख्यतः ऐसे संपादक जिम्मेवार हैं, जो कभी खखसकर अपने प्रबंधन के सामने यह नहीं बोल पाते कि अखबार वस्तुतः समाचार और विचार से ही चलते हैं, अन्य तिकड़मों या फिड़केबाजी से नहीं. प्रबंधन से जुड़े लोग एक बड़ी साजिश के तहत यह माहौल बनाते हैं कि उन्होंने अपने सर्वेक्षणों, उपहारों, मार्केटिंग हथकंडों, ब्रांड कार्यक्रमों वगैरह-वगैरह के जरिये अखबार को बढ़ाया है. संपादक भी बेचारे कृतज्ञ भाव से इस झूठ को स्वीकार करते हुए अपने अधीनस्थों की दुर्दशा पर चुप्पी साध लेते हैं. पत्रकारिता का भला इससे नहीं होने वाला. समय है सच को स्वीकारने और पत्रकारिता को गरिमामय पेशा बनाने का, ताकि इसमें उम्र गुजारने वालों को आखिरकार उस दिन को कोसना न पड़े, जिस दिन उन्होंने इसमें कदम रखा था.
लेखक : विष्णु राजगढ़िया

Thursday, February 3, 2011

सुधीर बने हमार टीवी के झारखण्ड हेड !

सुधीर कुमार 
सुधीर कुमार हमार टीवी में झारखण्ड के हेड बनाये गए. महज ४ साल पहले srtinger  के पद से पत्रकारिता के दुनिया में कदम रखने वाले सुधीर ने बड़े ही कम समय में इतनी बड़ी उपलब्धि अर्जित की है. पहले भी सुधीर बतौर रिपोर्टर/सब एडिटर हमार में कार्य कर चुके हैं. लेकिन कुछ कारणों से चैनल बंद हो गया था. लेकिन जब चैनल पुनः शुरू होने को है तब इनकी पिछली सभी कार्यकुशलता को देखते हुए इस बड़े पद का भर सौपा गया.
जोशारू अपने सभी सदस्यों की ओर से सुधीर को शुभकामनायें दे रहा है. तथा मंगल भविष्य की कामना करता है.

Friday, January 28, 2011

विज्ञापनों में गुम होते अखबार

बचपन में बहस होती। सवाल होता, कौन सा अखबार था जिसने गांधी जी के मरने की खबर पहले पन्ने पर नहीं छापी थी। ऐसी बातचीत इसलिए होती क्योंकि ‘पहला पन्ना मुख्य व बड़ी खबरों का होता है’, यह मान्यता बन गई थी। विज्ञापन वगहरा के लिए पुरा अखबार हो सकता है। यह अन्तर तो सभी मानते हैं कि अखबार पढ़े जाते हैं, वहीं विज्ञापन देखें जाते हैं।
आज ठीक विपरीत देखने में आता है। लगभग सारे अखबारों में पहले पन्ने पर विज्ञापन छपते हैं। पूरे पहले पेज के विज्ञापन कुछ समय पहले ही शुरू हुए हैं। इस विज्ञापन दौड़ में कोई अखबार पीछे न छूट जाए इसलिए सभी इस व्यवस्थित सामाजिक भेड़चाल का हिस्सा बने हैं। विज्ञापन भी खबरों को खास अहमियत देने वाले अखबार में ही छपते हैं। आखिर विज्ञापन भी अखबारों के उन्हीं पाठकों के देखने के लिए दिए जाते हैं। लेकिन पाठकों को अखबार पढ़ना पसंद है या देखना? आज के मीडिया मालिकों और पत्रकारों को क्या इसकी जरूरत महसूस होती है या नहीं? क्या अखबारों का पाठकों के प्रति उत्तरदायित्व खत्म तो नहीं हो गया है? पाठक यह जानता है कि विज्ञापनदाता अखबार नहीं चलाते हैं। अखबार तो पत्रकार ही चलाते हैं।

विज्ञापन की बात करते हुए, खबरों की खरीद-फरोख्त का पैमाना भी हाल में खबर बना है। जब खबरों की जगह को विज्ञापन खरीद सकते हैं तो विज्ञापन ही खबर क्यों नहीं बन सकता है? फिर अगर ऐसा ही चल निकला है तो अखबारों को विज्ञापन पत्रिका बनने से कैसे और कौन रोक पाएगा। खबरें विज्ञापन की तरह भी बिक सकती हैं। विज्ञापित खबरों की जरूरत सबसे ज्यादा चुनावों के समय होती है। उम्मीदवारों को जिन खबरों से फायदा मिले ऐसी खबर चुनाव के समय छापी जाती हैं। अखबार मानने लगे हैं कि जब विज्ञापन की रकम से अखबार चलते हैं तो विज्ञापन खबरों से ही अखबार क्यों नहीं चलाए जा सकते हैं। जब सभी कुछ खरीदा या बेचा जा सकता है तो खबरें क्यों नहीं? पाठक की सहनशक्ति को रजामंदी मान लिया जाता है। पत्रकारिय नैतिकता समाज से अलग कैसे चल सकती है। खुले खेल में सीमाएं कौन तय करेगा। लक्ष्मण रेखांए तो दूसरों के लिए खींची जाती हैं। खुद के लिए कौन आचार संहिता बनाता है। सामने और दूसरों पर उंगली उठाने वाला अपनी ओर वाली बंद मुठ्ठी क्यों और किसके भय से खोले? अंधेर नगरी में खाजा और भाजी के दाम कौन तय करेगा? गिरते समाजिक मुल्यों में कौन गिरने से बच सकता है?

जरूरत और लालसा की सीमाएं बाजार को तय करने देना उसी लक्ष्मण रेखा की तरह है, जो दूसरों के लिए खींची जाती है। उद्योग घरानों द्वारा चहेते मंत्री बनाने के लिए पत्रकारों के अहम का इस्तेमाल किया जाता रहा है। पत्रकार को पाठक का हित ही महत्वपूर्ण होना चाहिए। अपनी सीमाएं अपन खूद तय करते हैं या तोड़ते हैं। पत्रकारों को आए दिन ऐसे कई लुभावने मौके मिलते होंगे पर सभी तो फिसल नहीं जाते हैं। पाठक की आस्था से गिरना अपने पेट पर लात मारने जैसा है। लेकिन ज्यादा निराश होने की जरूरत नहीं है। गिरने के बाद उठना और उठने के बाद गिरना लगातार चलता रहता है। हतोत्साहित समाज में न तो गिरना ठीक होता है ना उठना सही।

जहां तक टेलीविजन का सवाल है तो वह देखा या सुना ही जाता है। यह सही है कि खबर और उससे जुडे़ विचार के माध्यम सभी हैं देखना, सुनना और पढ़ना। इनमें वैचारिक समानता तो हो सकती है लेकिन वस्तूगत समानता कैसे बनाई जा सकती है? देखने वाले टेलीविजन में विज्ञापन कौन पढे़गा? और पढे़ जाने वाले अखबारों में विज्ञापन कौन देखना चाहेगा। लेकिन मिलावट के जमाने में नए मिलावटी आयाम खोजे जाते हैं। कई अखबार तो रोज ही पहले पन्ने पर विज्ञापन देने लगे हैं।

लेकिन बढ़ते विज्ञापन खराब नहीं हैं। ज्यादा जरूरी है उनका सही इस्तमाल और वस्तूगत उपयोग। आवष्यक है कि विज्ञापनों का माध्यम निर्धारित किया जाए। टेलीविजन पर विज्ञापन दिखाए जाएं। अखबार में पढ़ने वाले विज्ञापन ही हों, वैसे ही रेडियो में सुने जाने वाले विज्ञापन हों। लेकिन इन तीनों खबर माध्यमों को चलाने वालों का उत्तरदायित्व देखनेवालों, पढ़नेवालों और सुनने वालों के प्रति होना चाहिए। विज्ञापनदाताओं को भी असल में देखने, पढ़ने और सुनने वालों तक ही पहुंचना होता है। यह खबर माध्यम जिन विज्ञापनों को दर्शाते हैं उन वस्तुओं को वही लोग खरीदते हैं जो इन माध्यमों के उपभोक्ता है। यानी उपभोक्ताओं को विज्ञापनदाता और खबर माध्यम लंबे समय तक छल नहीं सकते हैं। माध्यम ही मकसद को सही करते हैं। 

शुरूआत और बचपन में पूछे गए सवाल और उस अखबार का नाम आप सभी जानते हैं। पंजाब केसरी में पहला पन्ना मनोरंजन का होता था। अभी भी है। लेकिन लगातार पूरा पहला पन्ना विज्ञापन हो तो पाठक क्या सोचता है यह पता लगाना जरूरी है। यह भी पता लगाना चाहिए कि पाठक को अखबार में विज्ञापन चाहिए कि विज्ञापनों में अखबार। और मीडिया मालिकों को तय करना होगा कि उनका व्यवसाय विज्ञापन प्रचार है या कि खबर माध्यम चलाना। पत्रकारों को तय करना होगा की उनका पेट विज्ञापन पालते हैं या पाठक द्वारा सराही गई खबरें? भेद आत्मीय और मानवीय दोनो है। सभी को अपनी लक्ष्मण रेखा खुद खींचनी होगी।
लेखक:  संदीप जोशी (प्रभाष जोशी के ज्येष्ठ पुत्र संदीप जोशी का पहला प्यार तो वैसे क्रिकेट है लेकिन लिखने में भी महारत. एक सरकारी कार्यालय में नौकरी के साथ ही पिता द्वारा शुरू किये गये अखबार में नियमित लेखन भी.) 

Saturday, January 15, 2011

How to be a Freelance Journalist

I thought it would be nice if I made on post on how to be a freelance journalist because it isn't the most obvious thing to do. I'm sure you've heard of news that breaks somewhere in the Middle East or really anywhere, it is always a freelance journalist that is reporting to the major networks what is going on. I know that big news doesn't always happen where ever you may be on this planet, but you have to be prepared for it.

1. Start Your Own Website

What you want to do is pick up your own .com website name and start doing journalism. The easiest and best way to create a brand is by using your name. You put that as your domain name and you will build a brand out of it. At first no one is going to no who you are and maybe they won't know who you are when a big news story breaks, but it is a leveraging tool.

You want to set it up to be professional and to make the point that you're a freelance journalist. This is where you share your own personal well written journalism. Spend some time on stories, do research and interview people on the subject. It's a lot easier than you would think. Build up a nice portfolio of news stories that you have personally done. They'll speak volumes later when you contact a major network during a big event.

2. Have The Right Equipment

You need the right items at your disposal. That means you need a cellphone that you can make calls with, a laptop computer for you to write your story and a camera to take pictures. A camera is something that I think is important, though it is not required. I think when you have the chance to take amazing pictures you can get credit for them in the media.

If I was to pick the best camera for the job I would go with a Pentax Optio Waterproof Digital Camera because they happen to be well made and rugged. This camera is waterproof, shockproof (for dropping) and coldproof, which will cover you for all the important situations you could end up in. The other important point about the Pentax camera is that it is 12.1 MP, so the pictures are going to be crystal clear and big. Lastly, you can also record 720p high definition video with it. This is the type of video that any major network would be dreaming of when looking for footage from a freelance journalist. So definitely have one of these cameras.

When you have a laptop you want to make sure that you have the internet to upload your story. Remember that timing is very important when stories break because information is very scarce. I actually suggest not getting a full laptop, but a netbook. You may want to read the HP Mini 210 HD Edition Review since this is a pretty good netbook.

3. Start Building Contacts

A lot of people think the way to be a freelance journalist is to keep hounding CNN or something. Frankly, you're never going to find a number that would get you to anyone that could help you out. The key is building up contacts slowly and working your way up to the bigger contacts. You want to start locally and keep building them. And what you'll end up with is that your contacts will know someone that can help you get your stories out there.

That really is what happens. CNN is more likely to contact you because your name gets heard from one of your many contacts that CNN respects. And that is how it goes and that is the key to the whole thing.

Now you know how to be a freelance journalist you just have to go and do it. It is a long grueling process, but something that needs to be done. Building contacts at first will be difficult, but if you're doing good journalism the contacts will be come easier and easier to obtain.

Wednesday, January 12, 2011

कभी विधासागर ने स्कूल से निकाल दिया था स्वामी जी को..

स्वामी विवेकानंद के जीवन से जुड़ी कई ऐसी बातें हैं, जिनका जिक्र बहुत कम हुआ है या कहें कि हुआ ही नहीं है. उनकी मां भुवनेश्वरी दासी के प्रति उनका अगाध लगाव और श्रद्धा, आजीवन उनके साथ रहा. संन्यासी रहते हुए भी मां के प्रति उनकी चिंता जगजाहिर है. लेकिन कम ही लोगों को मालूम है कि अपनी मां के लिए उन्होंने क्या-क्या किया.

यूं तो सभी को मालूम है कि विवेकानंद का असली नाम नरेंद्रनाथ दत्त था. लेकिन उनकी मां भुवनेश्वरी दासी उन्हें वीरेश्वर या बीलू कहती थीं. भुवनेश्वरी दासी अत्यंत सुंदर महिला थी. उन्हें तीक्ष्ण स्मरणशक्ति का आशीर्वाद प्राप्त था. लगता है यही आशीर्वाद उन्होंने विवेकानंद को भी दिया था. तभी तो मधुमेह व अन्य रोगों से जर्जर शरीर के साथ विवेकानंद के जीवन के अंतिम दिनों में भी उनकी स्मरणशक्ति ऐसी थी कि वह आमलोगों को चौंका देती थी. दत्त परिवार काफी संपन्न था. उनके पिता विश्वनाथ नीलामी के धंधे से जुड़े थे.
1880-84 में जब एक मध्यम वर्गीय बंगाली परिवार के लिए महीने के 15 रुपये पर्याप्त थे, तब भुवेनश्वरी दासी की गृहस्थी करीब हजार रुपये से चलती थी. नाश्ते में नरेंद्र (विवेकानंद) और उनके भाई महेंद्र दो-चार आने में खस्सी के 10-12 मुंड जुटा लेते थे. साथ ही करीब दो-ढाई सेर हरे मटर भी उबाल कर सालन पकाया जाता था.

महेंद्रनाथ ने लिखा है कि शाम को दोनों भाई स्कूल से लौट कर इस सालन के साथ
15-16 रोटियां हजम कर जाते. जीवन के अंतिम दौर में भी स्वामीजी को खाने-पीने का शौक रहा. तब वह कोलकाता के पास बेलूर मठ में रहा करते थे. कहते हैं कि स्वामीजी खुद तो खाते ही थे, स्वयं पका कर दूसरों को भी खिलाते थे. एक दिन उन्होंने कहा कि वह फ़ुलौड़ियां बनायेंगे. उन्होंने इसके लिए जरूरी सामग्रियों की मांग कीं. उन्हें तेल, कड़ाही, बेसन आदि दिये गये. स्वामीजी बिल्कुल फ़ुलौड़ीवाले की तरह बैठ गये. धोती घुटनों तक समेट ली और फ़ुलौड़ी छानते हुए बच्चे की तरह आवाज दे-देकर मानों ग्राहकों को बुलाने लगे -आओ लोगों, चले आओ, आ जाओ. कहते हैं कि स्वामीजी को खाने में मिर्ची सबसे प्रिय थी. बड़े मजे से वह तीखी मिर्च खाते थे. विदेशी दोस्तों को जब वह तीखी मिर्च से बने व्यंजन खिलाते, तो खानेवालों की हालत बिगड़ने लगती. 
खाना पकाते हुए स्वामीजी दर्शन और गीता के अध्याय का उद्धरण भी देते रहते थे. कहा जा सकता है कि स्वामीजी ने पश्चिम को वेदांत के साथ ही बिरयानी की भी सीख दी. उनकी मां कहा करती थी कि बचपन से ही नरेन में कई दोष थे. वह किसी बात पर अगर भड़क जाते
, तो उन्हें सही-गलत की सुध नहीं रह जाती. घर के सामान तोड़ कर उन्हें तहस-नहस कर देते. नरेंद्रनाथ ने विश्वविद्यालय की तीन परीक्षाएं दी थीं. एंट्रेंस, एफए और बीए. हालांकि नंबर मन मुताबिक नहीं आये थे.

जिस इंसान को अंगरेजी भाषण में विश्वविजय हासिल हो
, उसे बीए में अंगरेजी में दूसरी श्रेणी मिले, यह बात पचती नहीं. उन्हें एंट्रेंस में अंगरेजी में 47, द्वितीय भाषा में 76, इतिहास में 45, गणित में 38 यानी कुल 206 अंक मिले थे.  एफए की परीक्षा में उन्हें अंगरेजी में 46, द्वितीय भाषा में 36, इतिहास में 56, गणित में 40, तर्कशास्त्र में 17, मनोविज्ञान में 34 और कुल मिला कर 229 अंक मिले थे. बीए की परीक्षा में स्वामीजी को अंगरेजी में 56, द्वितीय भाषा में 43, गणित में 61, इतिहास में 56, दर्शन में 45 और कुल मिला कर 261 अंक मिले थे.

स्वामीजी की कुशाग्र बुद्धि से अवगत लोग उन्हें परीक्षा में मिले इन अंकों को देख कर तब की परीक्षा पद्धति पर सवाल भी उठाते हैं. स्वामीजी के पिता विश्वनाथ की मृत्यु के बाद उनकी पत्नी भुवनेश्वरी दासी और उनकी संतानों पर आपदा का पहाड़ टूट पड़ा. पारिवारिक मामले-मुकदमे शुरू हो गये. इस दौरान अदालती खर्च जुटाने के लिए विवेकानंद को दर-दर भटकना पड़ा. नौकरी की तलाश में विवेकानंद एक बार विद्यासागर द्वारा स्थापित मेट्रोपोलिटन इंस्टीटय़ूशन पहुंचे. स्कूल की कोलकाता स्थित सुकिया स्ट्रीट शाखा में नरेंद्रनाथ को हेडमास्टर की नौकरी मिली. स्कूल के सचिव विद्यासागर के दामाद थे. उन्होंने विवेकानंद के खिलाफ छात्रों को भड़का दिया. नौवीं और
10वीं के छात्रों ने संयुक्त रूप से आवेदन किया कि नये हेडमास्टर को पढ़ाना नहीं आता. फिर तो विद्यासागर ने उन्हें स्कूल नहीं आने के लिए ही कहलवा दिया. मजे की बात यह कि जिस विवेकानंद ने पूरी दुनिया को पढ़ाया, उन्हें ही कभी उक्त स्कूल से नकारा बता कर निकाल दिया गया था.

तथ्य बताते हैं कि संन्यासी बनने के बाद भी अपनी मां के लिए विवेकानंद सदैव चिंतित रहे. मां को पैसे भेजने के लिए उन्हें लोगों के आगे हाथ फ़ैलाना पड़ता था. जब स्वामीजी गंभीर रूप से बीमार थे
, तब वह लगातार अपने करीबी लोगों से आग्रह कर रहे थे कि उनकी मृत्यु के बाद उनकी मां का ख्याल रखा जाये. शुक्रवार चार जुलाई 1902 को बेलूर मठ में ही नाश्ते में उन्होंने गर्म दूध पिया. फल वगैरह खाये. दोपहर 11.30 बजे सबके साथ रसदार इलिश मछली व चटनी के साथ भात खाये.

दोपहर एक से चार बजे तक लाइब्रेरी में साधु ब्रह्मचारियों की क्लास ली. विषय था :  पाणिनी व्याकरण. शाम पांच बजे आम के पेड़ तले बेंच पर बैठ कर उन्होंने कहा कि आज जितना स्वस्थ एक लंबे अरसे में उन्होंने महसूस नहीं किया था. शाम सात बजे संध्या- बाती का घंटा बजने के बाद स्वामीजी अपने कमरे में चले गये. ब्रजेंद्र नामक युवक से दो लड़ी माला मांगी और उसे बाहर जाकर ध्यान करने को कहा. शाम
7.45 बजे गर्मी लगने पर खिड़की खोलने को कहा.

रात नौ बजे उनका दाहिना हाथ जरा कांप गया. उनके माथे पर पसीने की बूंदें थीं. रात
9.02 बजे से 9.10 बजे तक गहरी लंबी सांसें चली और फिर थोड़ी देर बाद ही उनका माथा लुढ़क गया. आंखें स्थिर, चेहरे पर अपूर्व ज्योति. इसके बाद डॉक्टर वगैरह ने तमाम कोशिशें की. रात 12 बजे डॉक्टर ने उनके देहांत की सूचना दी. 39 वर्ष पांच महीने और 24 दिन की आयु में उन्होंने इहलोक त्याग दिया. उनका अंतिम संस्कार उनकी इच्छा के अनुरूप बेलूर मठ परिसर में ही किया गया. हालांकि अगले दिन कोलकाता के किसी भी समाचारपत्र में उनके निधन की सूचना नहीं थी. दाह संस्कार अगले दिन शाम छह बजे संपन्न हुआ.

(मशहूर रचना चौरंगी के लेखक शंकर की विवेकानंद पर एक और पुस्तक अविश्वास्य विवेकानंद का हाल में प्रकाशन हुआ है.) बातचीत : आनंद कुमार सिंह

Thursday, January 6, 2011

आज तक चैनल के दस साल : कहां से चले...कहां आ पहुंचे



ठीक दस बरस पहले आज तक न्यूज चैनल शुरु हुआ तो इंडिया टुडे के एडिटर-इन-चीफ अरुण पुरी ने मीटिंग बुलाकर सिर्फ इतना कहा कि अब यह चैनल आपके हाथ में है ...आप खुद ही इसकी दिशा तय कीजिये। उसके बाद शायद हर पत्रकार ने अपनी अपनी दिशा तय की। कोई बीजेपी के भीतर घुसा तो कोई संघ के भीतर। किसी ने काग्रेस में सेंघ लगायी तो कोई आतंकवाद की आहट में फंसते देश को संसद पर हमले से ही सूंघ गया। असर इसका यही हुआ कि खबरें तो सबसे पहले आजतक के स्क्रीन पर रेंगने ही लगी...साथ ही रिपोर्टर की विश्वसनीयता भी इतनी मजबूत दिखी कि राजनीतिक दलों के प्रवक्ता की प्रतिक्रिया का इंतजार खबरों को चलाने के लिये कभी ‘आज तक’ में नहीं हुआ। और कोई रिपोर्टर इस तौर पर नहीं लगा कि उसके ताल्लुकात किसी राजनीतिक दल के साथ या सरकार के किसी मंत्री के साथ हैं। हर रिपोर्टर की अपनी ठसक थी। उसकी अपनी विश्वसनीयता थी।

दरअसल, इस हिम्मत के पीछे भी अरुण पुरी की ही पत्रकारीय समझ की ताकत थी, जिन्होंने न्यूज चैनल लांच करने से पहले बैठक में एक रिपोर्टर के सवाल पर यह कह कर चौकाया था कि खबर कभी रोकनी नहीं चाहिये और बिना किसी बाइट के अगर कोई रिपोर्टर खबर बताने की ताकत रखता है, तो वही उसकी विश्वनियता होती है। इस खुलेपन और ईमानदार माहौल के बीच आज तक की शुरुआत का हर पन्ना दस्तावेज है। लेकिन दस बरस बाद सिर्फ आज तक ही नहीं बल्कि न्यूज चैनलो में खुलापन या ईमानदार पहल के बीच पत्रकार की विश्वसनीयता का सवाल खोजने की बात होगी तो जाहिर है आखों के सामने खबरों से इतर रोचक या डराती तस्वीर आयेगी। हंसाती या त्रासदी को भी लोकप्रिय अंदाज में परोसी जाती जानकारी ही आती है। या फिर सूचना-दर-सूचना के आसरे सरकार के प्रवक्ता के तौर पर जानकारी को ही खबरों को मानने के सच के आलावे और कुछ आयेगा नहीं। और इस कड़ी में अगर पत्रकार की विश्वसनीयता का सवाल उछलेगा तो सत्ता से सबसे करीब का पत्रकार ही सबसे उंचे कद का खबरो को जानने समझने वाला माना जायेगा। यानी दस बरस का सबसे बड़ा यू टर्न पत्रकार की विश्वसनीयता से इतर सत्ताधारियों की गलबहियों के आसरे खुद में सत्ता की ताकत देखने-दिखाने की विश्नसनीयता है।

इसी घेरे में पेड न्यूज भी है और नीरा राडिया के टेप भी। चूंकि सत्ता का मतलब अब सरकार नहीं बल्कि वह पूंजी है जिसके आसरे सरकार अपनी मौजूदगी दर्ज कराती है। और सरकार की मौजूदगी मंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक जब विकास दर का आंकडे और चकाचौंध की नीतियों तले हो, तब समझना यह भी होगा कि गवरनेंस का मतलब या तो नीतियों के आसरे पूंजी की उगाही के रास्ते बनाने हैं या फिर पूंजी के लिये मुनाफे का ऐसा तंत्र, जिसमें विकास का पैमाना नयी नयी थ्योरी गढ़े। यानी एक ऐसे समाज या देश की परिकल्पना उड़ान भरे, जिसमें लोकतंत्र का जाम कॉरपोरेट के गिलास में सिमटा रहे। पत्रकार की पहली मुश्किल यहीं से खड़ी हुई क्योकि पत्रकार पहले मीडियाकर्मी में बदला और फिर अखबार या न्यूज चैनल का दफ्तर मीडिया हाउस में।

जाहिर है मीडिया हाउस की जरुरत भी इसी दस बरस में अगर अपनी पहचान को लेकर बदली तो नयी पहचान को बनाये रखने की जद्दोजहद में पत्रकार का ट्रांसफारमेशन भी हुआ। खबरों पर विज्ञापन मिलने का दौर इस कदर बदला कि विज्ञापन के आसरे खबरो को लिखने और चलाने का दौर शुरु हो गया। यानी दस बरस पहले जो पत्रकारीय विश्वसनीयता जनता में प्रभाव जमाती थी और उसी जनता को अपना माल बेचने के लिये विज्ञापन के जरीये पैसा मीडिया तक पहुंचता था, उसे नई आर्थिक व्यवस्था ने उलट दिया। इसी के सामानांतर खबरों को जनता तक पहुंचाने की पटरी भी उसी राजनीति के भरोसे पर आ टिकी जो खुद कारपोरेट पूंजी के जरीये अपने होने या ना होने का आंकलन करने लगी थी। खबर बिना विज्ञापन मंजूर नहीं। और न्यूज चैनल जिन कैबल के आसरे लोगो के घर तक पहुंचे, उस पर उसी राजनीति ने कब्जा कर लिया जो पहले ही खुद को मुनाफे की पूंजी तले नीलाम कर चुकी है। यानी रिपोर्टर से लेकर संपादक तक की समूची ऊर्जा ही जब मिडिया हाउस के मुनाफे को बनाने पर टिकेगी तो इसका असर होगा क्या ।

यह दस बरस बाद अब की परिस्थितियों को देखने से साफ हो सकता है। जहां पेड न्यूज का मतलब अगर पैसा लेकर खबर छापना है तो इसका दूसरा मतलब उन लोगो से पैसा लेना है जो चुनाव लड़कर या जीतकर पैसा ही बनायेंगे। तो उनसे पैसा मांगने में परेशानी क्या है। वही जो सरकार खुद को कॉरपोरेट के जरीये उपलब्धियों के दायरे में रखें या फिर कारपोरेट के लिये ही इस भरोसे काम करें कि देश में एक व्यवस्था तो बनी ही हुई है, उस व्यवस्था के एक हिस्से को लूटकर अगर एक नया कारपोरेट समाज ही बनाया जा सकता है, तो फिर इस कारपोरेट समाज का हिस्सा बनने में कोई सवाल क्यों करेगा। उसी कारपोरेट समाज का हिस्सा अगर कोई संपादक खबर के लिये या खबर की सौदेबाजी के जरीये अपने मीडिया हाउस को लाभ पहुंचाता है तो फिर इसमें परेशानी क्या है। बल्कि कोई संपादक अगर अपने आप में कॉरपोरेट हो जाये तो किसी भी मीडिया हाउस के लिये इससे बडी उपलब्धि और क्या हो सकती है। यानी पत्रकारीय समझ के दोनो दायरे में जब महत्वपूर्ण पूंजी या मुनाफा ही है, तो फिर स्ट्रिंगरों से लेकर रिपोर्टर तक से पेड-न्यूज का खेल या फिर कारपोरेट संपादक से जरीये सत्ता के पूंजी बंटवारे में सेंध लगाने की हैसियत तले राडिया टेप सरीखे सवाल। 15 बरस पहले जब आजतक न्यूज चैनल के तौर पर नहीं था और महज बीस मिनट में देश भर की खबरो को समेटने का माद्दा एसपी सिंह रखते थे। तब सुखराम के घर से बोरियों से निकले नोटों को कैमरो पर देखकर उन्होंने आजतक की पत्रकारीय टीम की मीटिंग में यही कहा कि इन नोटों को आपने अगर भूसा नहीं माना तो फिर भ्रष्ट्राचार पर नकेल भी मीडिया नहीं कस पायेगा । और उसके बाद आजतक के कार्यक्रम में जब्त करोडो नोटों को दिखाकर एसपी ने देश की बदहाली में भ्रष्ट्र मंत्री का कच्चा-चिट्ठा दिखाया। लेकिन दस बरस बाद उसी बदहाल देश में साढ़े चार हजार करोड के मुकेश अंबानी के मकान का ग्लैमर तमाम न्यूज चैनलो में यह कह कर परोसा गया कि दुनिया का सबसे रईस शख्स भी हमारे पास है। और इसके लिये देखिये नायाब व्हाइट हाउस। दिल्ली को प्रदूषण मुक्त बनाने के लिये 14 बरस पहले जब उद्योगों को हटाने का एलान हुआ तो एसपी सिंह ऐसी खबर को बनाने में जुटे जिसमें प्रदूषण का मारा मजदूर हो और उसी मजदूर के घर का चूल्हा भी उसी उद्योग से चलता हो, जिससे उसकी तबियत बिगड़ी हो । और उस वक्त लुटियन्स की दिल्ली पर एसपी सिंह ने सीधा हमला किया था।

वहीं दस बरस पहले जब सैनिक फार्म पर एससीडी का बुलडोजर चल रहा था तब आजतक के ही संपादक उदय शंकर इस बात पर तैयार हो गये थे कि छतरपुर के फार्म हाउसों के भीतर की दुनिया से भी देश को परिचय कराया जाये। जहां आज नीरा राडिया का आकाश-गंगा फार्म-हाउस है और जिसपर सीबीआई ने छापा मारा। दस बरस पहले फार्म हाउस समाज की बदहाली में मलमल का पैबंद संपादक को नजर आते थे और दस बरस बाद संपादको को नीरा राडिया के फार्म हाउस में ग्लैमर और देश के विकास की चकाचौंध नजर आती है। किस तेजी से मीडिया का चरित्र बदला इसका अंदाज अब खबरों को पकड़ने और उसे दिखाने से भी लगाया जा सकता है। महाराष्ट्र के औरंगाबाद में तीस फीसदी लोग गरीबी से नीचे हैं। अधिकतर बुनकर मौत के कगार पर हैं। कपास-गन्ने के किसान खुदकुशी कर रहे हैं। लेकिन इस दौर में औरगांबाद में सबसे ज्यादा मर्सीडिज गाड़ियां हैं इस पर राष्ट्रीय न्यूज चैनलो ने स्पेशल कार्यक्रम बनाये। डीएलएफ के मालिक के पास सिर्फ दो सौ करोड़ की कारों का काफिला ही है, उस पर स्पेशल रिपोर्ट न्यूज चैनलो में चली। क्योंकि दस बरस में मीडिया हाउस का मतलब कारपोरेट समाज का पिलर बनना हो चुका है और पत्रकार का मतलब भी कारपोरेट समाज में बतौर ब्रांड बनना। यानी कीमत अब ब्रांड की है। न्यूज चैनल भी ब्रांड है और कोई पत्रकार अगर ब्रांड बन गया तो उसके लिये पत्रकारिता मायने नहीं रखती बल्कि उसके जरीये पत्रकारिता चल सकती है। दस बरस पहले ब्रांड का मतलब खबरों को लेकर विश्वसनीयता थी। पत्रकारीय एथिक्स थे । दस बरस बाद आज की तारीख में ब्रांड का मतलब सत्ता और कारपोरेट के समाज में पत्रकारीय एथिक्स बेचकर उनके मुनाफे को विश्वसनीय बनाना है, और खुद चकाचौंध के लिये विश्वसनीय बनना है। यानी दस बरस पहले जो पत्रकारीय समझ आम आदमी के हक उसकी जरुरत तले लोकतंत्र की महक खोजते थे और संविधान के दायरे में वी द पीपुल, फार द पीपुल का सवाल खड़ा करने की ताकत दिखाते थे, वही सवाल दस बरस बाद आज लोकतंत्र को भी पूंजी-मुनाफे का गुलाम मानने से नहीं हिचकते। और मीडिया का यही चेहरा अब खुल्लम खुल्ला मान चुका है कि देश संसद से या संविधान के दायरे से नहीं बल्कि कारपोरेट समाज के जरीये चलता है। इसलिये दस बरस पहले मीडिया विकल्प के सवालों में देश की व्यवस्था को भी परखता था। लेकिन दस बरस बाद आज बदली हुई व्यवस्था और कारपोरेट समाज के लिये पत्रकारिता को ही विकल्प मान लिया गया है। यानी जिससे लड़ना था और जिस पर निगरानी करनी थी उसी की पूंछ बनकर सूंड होने का भ्रम नया पत्रकारीय मिशन हो चुका है।
लेखक : पुण्य प्रसून बाजपेयी, ज़ी न्यूज़ (भारत का पहला समाचार और समसामयिक चैनल) में प्राइम टाइम एंकर और सम्पादक हैं।