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किसी भी संस्थान के पूर्ववर्ती छात्रों की पेशेवर सफलता उस संस्थान से मिलने वाली उपाधि का मोल तय करती है। इसके अलावा दूसरी बातें भी हैं, लेकिन ये उपाधि का मोल तय करने में सबसे अहम यही है। लेकिन सिक्के का दूसरा पहलु ये है कि उपाधि का मोल पूर्ववर्ती और वर्तमान सभी छात्रों की सफलता का आधार तय करता है। समझने की कोशिश करिए। ...जोशारू, हमारे-आपके भविष्य को सीधा प्रभावित कर सकता है...

Friday, December 31, 2010

वक्त से तेज खबरों का साल

भारतीय मीडिया के लिए यह साल तकरीबन ‘डिकेंसियन’ रहा : ‘गुजरा हुआ वक्त बेहतरीन था, लेकिन शायद वह बदतरीन भी था’ (चाल्र्स डिकेंस के उपन्यास अ टेल ऑफ टू सिटीज का प्रसिद्ध वाक्य)।

एक मुख्यमंत्री को इस्तीफा देने को मजबूर होना पड़ा, एक केंद्रीय मंत्री को अपना पद छोड़ना पड़ा, वरिष्ठ राजनेताओं के घर पर छापे मारे गए : ऐसा पिछली बार कब हुआ था, जब भारतीय मीडिया के खाते में एक ही साल में इतनी सारी ‘कामयाबियां’ दर्ज हों? लेकिन जब हम पत्रकारिता के इस सख्त और गैरसमझौतावादी रुख का जश्न मना रहे थे, तभी नीरा राडिया के टेप्स सामने आए और तस्वीर बदल गई। चंद माह पहले तक देश के सत्ता तंत्र को आड़े हाथों लेने के लिए मीडिया की पीठ थपथपाई जा रही थी, लेकिन अब उसे सत्ता का साझेदार करार दिया जा रहा है। सच्चाई, जैसा कि अक्सर होता है, इन दोनों स्थितियों के बीच में है।

एक अर्थ में भारतीय मीडिया का यह उत्थान और पतन लगभग अवश्यंभावी था। पिछले एक दशक की अवधि में हमारे समाचार मीडिया ने लंबा सफर तय किया है। वर्ष 2000 में केवल एक न्यूज चैनल को सरकार की हरी झंडी थी। आज देश में 500 से ज्यादा चैनल हैं, जिनमें से एक तिहाई न्यूज चैनल हैं। सौ से भी ज्यादा चैनल सरकारी अनुमति की प्रतीक्षा कर रही हैं। इसमें रोजाना बिकने वाली अखबारों की करोड़ों प्रतियों और 80 लाख इंटरनेट उपयोगकर्ताओं को भी जोड़ लें तो हमारे सामने समाचारों से संचालित होने वाले एक समाज की छवि उभरती है। जब इतने बड़े पैमाने पर खबरों का उपभोग होता हो तो मीडिया को हमारी जिंदगी में एक ‘लार्जर दैन लाइफ’ भूमिका निभानी ही है।

दो सप्ताह पहले अहमदाबाद में एक न्यूज सेमिनार में जरा गुस्साए हुए श्रोताओं में से एक ने मुझसे पूछा : ‘क्या आप मीडियावाले अपने आपको खुदा समझते हैं?’ मैंने फौरन कहा कि मैं नश्वर मनुष्य हूं, लेकिन मुझे यह भी महसूस हुआ कि दलीलें देने का कोई फायदा नहीं है। समाचार उपभोक्ता मीडिया से यह उम्मीद करते हैं कि वे देश की ढेरों समस्याओं का समाधान कर देंगे, फिर चाहे वह भ्रष्टाचार हो, आतंकवाद हो या फिर उनके पड़ोस में फैली गंदगी की सफाई करवाना ही क्यों न हो। लेकिन इसी मीडिया से यह भी अपेक्षा की जाती है कि वह थोड़ी विनम्रता बरते, अपने हठ और दुराग्रह को त्याग दे और प्रसिद्धि की चकाचौंध से अपने को दूर रखे।

नए मीडिया के सामने यह मुश्किल विकल्प रखा गया है कि वह या तो खुद को अवाम का नया मसीहा सिद्ध करे या फिर करोड़ों समाचार उपभोक्ताओं का एक गुलाम बनकर रह जाए, जिसका अपना कोई चेहरा नहीं है।
हममें से कुछ पत्रकार इन विरोधाभासी अपेक्षाओं में उलझकर रह गए हैं। अब न्यूज एंकरों के लिए यह असामान्य बात नहीं रह गई है कि वे हर रात टीवी चैनल पर जज, ज्यूरी या जल्लाद की भूमिका निभाएं।

अब पत्रकार खबरों के ‘निर्लिप्त’ और ‘निरपेक्ष’ पर्यवेक्षकभर नहीं रह गए हैं। पत्रकारों ने अपने लिए अब यह विशेष अधिकार प्राप्त कर लिया है कि हम ‘देश’ की आवाज बनें। उन्हें इस बात से शायद फर्क नहीं पड़ता कि कुछ लोगों के भिन्न विचार भी हो सकते हैं। चैट शो के गुरु लैरी किंग ने बहुत संक्षेप में न्यूज टेलीविजन का नया मंत्र दिया है : ‘सभी चैट शो के होस्ट अपना ही इंटरव्यू लेते हैं। शो के मेहमान तो महज एंकरों को सहारा देने के लिए होते हैं।’

कभी-कभी हम पत्रकार पवित्रता का लबादा ओढ़ लेते हैं और समाचार के मंच से उपदेश देना शुरू कर देते हैं। लेकिन यह मुसीबत को बुलावा देने जैसा है। क्योंकि बाद में जब मीडिया अपने कर्तव्यों का निर्वहन नहीं कर पाता, तब उस पर जवाबी हमला बोले जाने में देर नहीं लगती। नीरा राडिया टेप्स के प्रकाशन के बाद ठीक यही हुआ है। ब्लॉग और अन्य माध्यमों में मीडिया के प्रति काफी गुस्सा जताया जा रहा है। लगता है यह गुस्सा एक निराशा का परिणाम है, क्योंकि मीडिया को देश का पहरेदार माना जाता है। अगर मीडिया जनता का प्रवक्ता है तो जनता भी यह मानती है कि उसे मीडिया को कठघरे में खड़ा करने का अधिकार है। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि अगर हमारी निजी बातचीतों को सार्वजनिक कर दिया जाए तो हममें से अधिकतर लोग असहज अनुभव करेंगे। चूंकि मीडिया समाज के लिए उत्तरदायित्व के ऊंचे मानक तय करता है, लिहाजा उससे भी यह अपेक्षा की जाती है कि वह खुद भी इन्हीं मानदंडों पर खरा उतरेगा।

देखा जाए तो एक मायने में यह एक सकारात्मक परिवर्तन है। पिछले दशक में हुई मीडिया क्रांति के दौरान खबरों की उन्मादी प्रतिस्पर्धा में पत्रकारिता के नियम-कायदों को ताक पर रख दिया गया। सतही और अक्सर साक्ष्यहीन आरोपों को बिना किसी मानहानि के भय के प्रसारित कर दिया गया या अखबार में छाप दिया गया। जब समाचार महज एक घंटे बाद इतिहास बनकर रह जाएं तो सच्चाई सनसनी के आगे घुटने टेक देती है। यह मीडिया की विश्वसनीयता के लिए एक चिंतनीय स्थिति है। भ्रष्ट तंत्र को उसकी नींद से जगाने के लिए हम कई बार ‘मीडिया ट्रायल’ की जरूरत महसूस करते हैं, लेकिन अगर ‘मीडिया ट्रायल’ अपने आपमें एक साध्य बनकर रह जाए, यदि समाचार व्यक्तिगत पूर्वाग्रहों के जरिए बनकर रह जाएं, तो यह हमारी पेशेवर निष्ठा के लिए भी एक खतरा होगा।

इसीलिए अगर राडिया टेप्स के प्रकाशन के बाद हो रही मीडिया की आलोचना उसे अपनी कार्यप्रणाली में जरूरी सुधार करने को मजबूर करती है तो हमें इसका स्वागत करना चाहिए। मीडिया के उदय ने पत्रकारों को जमीनी हकीकत से दूर कर दिया था। हम अपने संस्थान से जुड़ी जिम्मेदारियां भी भूल गए। हम भूल गए कि हम मुक्त पत्रकारिता नामक एक संस्था के दास हैं। हमारा काम पत्रकारिता के आदर्शो का निर्वहन करना है, अपने व्यक्तिगत हितों की पूर्ति करना नहीं और राजनीतिक या कॉपरेरेट हितों की पूर्ति करना तो कतई नहीं।

फिर भी हमें याद रखना चाहिए कि मीडिया में चाहे कितनी ही बुराइयां क्यों न हों, लेकिन कुछ लोगों के आधार पर समूचे मीडिया को दोषी ठहराना ठीक नहीं है। मीडिया में सैकड़ों प्रतिबद्ध और ईमानदार पत्रकार भी हैं, जो बिना किसी डर या पक्षपात के हम तक सही खबर पहुंचाने के लिए कड़ी मेहनत करते हैं। इन्हीं लोगों के कारण पत्रकारिता की भावना आज भी जीवित है।

पुनश्च : राडिया टेप्स के प्रकाशन के बाद हाल ही में कराए गए एक पोल में ९७ फीसदी लोगों ने कहा कि वे पत्रकारों का भरोसा नहीं करते। एक अन्य पोल में मीडिया को रियल एस्टेट एजेंटों और राजनीतिज्ञों से कुछ ही विश्वसनीय बताया गया। नए साल में हमारा यह संकल्प होना चाहिए कि हम मीडिया के प्रति लोगों के मन में बनी विश्वसनीयता की खाई को पाटने का प्रयास करें।
लेखक:
राजदीप सरदेसाई ( सीएनएन 18 नेटवर्क के एडिटर-इन-चीफ हैं।)

खबर देने वाले खुद बने खबरों का हिस्सा

प्रेस को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है और खबरों की खबर रखने वाले मीडिया के कई लोगों ने इस वर्ष खुद भी खबरों में जगह बनाई. विज्ञान पत्रकारिता में उत्कृष्ट योगदान के लिए वरिष्ठ भारतीय पत्रकार पल्लव बागला को सैन प्रांसिस्को में 16 दिसंबर को एक भव्य समारोह में प्रतिष्ठित डेविड पर्लमैन अवॉर्डं से नवाजा गया. डेविड पर्लमैन अवॉर्ड फॉर एक्सि‍लेंस इन साइंस जर्नलिज्‍म हर साल अमेरिकन जियो पिजीकल यूनियन की ओर से प्रदान किया जाता है. विश्व की सबसे बड़ी समाचार संस्थाओं में से एक सीएनएन ने अपने वार्षिक हीरो ऑप द ईयर पुरस्कार के शीर्ष दस दावेदारों में इस साल एक भारतीय को भी चुना.

भारत के
29 वर्षीय शेप नारायण कृष्णन को सामाजिक सेवा के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए इस पुरस्कार के दावेदार शीर्ष दस नामों में शामिल किया गया. सामान्य आदमी जो विश्व को बदल रहे हैं की भावना के तहत दिए जाने वाले इस पुरस्कार में कृष्णन के चयन का मुख्य कारण उनके द्वारा चलाई जा रही एक गैर लाभकारी संस्था है, जिसके माध्यम से वे बेघर और निस्सहाय लोगों की सेवा करते हैं.

न्यूयार्क में आठ अगस्त को न्यूजवीक के भारतीय मूल के संपादक परीद जकारिया ने यहूदी समूह एंटी डीपेमेशन लीग द्वारा दिया गया अवार्ड
, समूह के ग्राउंड जीरो मस्जिद के प्रति विरोध को लेकर लौटाया. इस साल जुलाई में भारत में जम्मू कश्मीर सरकार ने मीडिया के कामकाज पर पाबंदी लगा दी, जिसका दक्षिण एशि‍या मीडिया आयोग (सापमा) के भारतीय चैप्टर सहित प्रमुख पत्रकार संगठनों ने विरोध किया. मीडिया संबंधी संगठन रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स के अनुसार, बीते बरस में पाकिस्तान में कम से कम 12 पत्रकार मारे गए. श्रीलंका सरकार ने देश की छवि खराब करने के आरोप में 29 जनवरी को स्विट्जरलैंड की एक पत्रकार का वीजा निरस्त कर दिया और उसे 48 घंटे के भीतर देश छोड़ने को कहा.
30 जनवरी को श्रीलंका की पुलिस ने विपक्ष समर्थक अखबार लंका के संपादक को हिरासत में लेने के बाद अखबार के कार्यालय को सील कर दिया. अखबार में सरकार के एक शीर्षस्थ अधिकारी की आलोचना करते हुए खबरें प्रकाशित की गईं थीं. लंका देश की मुख्य विपक्षी पार्टी मार्क्‍सवादी जेवीपी से संबंधित है. 16 दिसंबर को दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति जैकब जुमा ने मीडिया के खिलाप मानहानि याचिका दायर की. जुमा ने यह मामला मीडिया द्वारा उनकी तुलना कथित रूप से 19वीं सदी के विवादास्पद जुलू योद्धा से किए जाने को लेकर दायर किया. वर्ष 2006 से लेकर अब तक 68 वर्षीय दक्षिण अप्रीकी नेता जुमा मानहानि के मामले में 11 याचिकाएं दायर कर चुके हैं. 2006 में वह उप राष्ट्रपति थे.

अलकायदा की शुरूआत से पहले ओसामा बिन लादेन का साक्षात्कार लेने वाले सऊदी पत्रकार जमाल खासहोग्गी ने
16 मई को अल वतन अखबार के प्रधान संपादक के पद से इस्तीपा दे दिया. खासहोग्गी को अल वतन समाचार पत्र को प्रगतिशील ताकतों का समाचार पत्र बनाने का श्रेय जाता है. जुलाई में ट्विटर पर, दिवंगत शिया मौलवी और हिजबुल्ला नेता मोहम्मद हुसैन पदलल्लाह की तारीफ करना सीएनएन की एक वरिष्ठ संपादक ओक्ताविया नस्र को महंगा पड़ा और आठ जुलाई को उन्हें बर्खास्त कर दिया गया. ओक्ताविया नस्र पश्चिम एशि‍याई मामलों की वरिष्ठ संपादक थीं. उन्होंने ट्विटर पर हिज्बुल्ला के दिवंगत नेता पदलल्लाह के प्रति अपना सम्मान जाहिर किया था, जिसे अमेरिका ने आतंकी संगठनों की सूची में डाल रखा है.

Saturday, November 20, 2010

मीडिया शिक्षाः बहुत कुछ बदलने की जरूरत

पिछले कुछ दो दशकों में तकनीक-संचार के साधनों की तीव्रता ने दुनिया के मीडिया का चेहरा-मोहरा बहुत बदल दिया है। मीडिया में पेशेवर अंदाज़ व आकर्षक प्रस्तुति की माँग प्राथमिक हो गई है। यह अब शब्दों की बेचारी दुनिया नहीं रही, यहाँ शब्द पीछे हैं, उसके साथ जुड़ा है, एक बेहद चमकीला अर्थतंत्र। मीडिया का यही वैभव आज हमें चकाचौंध में भी डालता है और उसके रचनात्मक इस्तेमाल के लिए एक अलग तरह की चुनौती भी उपस्थित करता है। मीडिया का यह नया चेहरा कैसे और कितना सामाजिक उत्तरदायित्व से लैस हो, ये बहसें भी आज काफ़ी तेज़ हैं, लेकिन बहस उस बात पर नहीं होती, जहाँ से इस मीडिया को नियंत्रित किया जा सकता है। शायद हमें अपने मीडिया को उसकी जड़ों, संस्कारों और मिशनरी भावनाओं से प्रेरित करने के लिए जनसंचार शिक्षा पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है। यदि मीडिया में आ रहे युवाओं को जड़ों से ही कुछ ऐसे विचार मिलें, जो उन्हें व्यावसायिकता के साथ-साथ संस्कारों की भी दीक्षा दें, तो शायद हम अपने मीडिया में मानवीय मूल्यों को ज़्यादा स्थान दे पाएँगे। यह चुनौती दुष्कर नहीं पर कठिन अवश्य है क्योंकि हमारी आज की जनसंचार शिक्षा की बदहाली किसी से छिपी भी नहीं है। हमें यह देखना होगा कि हमारे मीडिया की तरह इसकी शिक्षा के हालात भी बदहवासी के शिकार क्यों हैं ?
हर वर्ष नए शिक्षा सत्र की दस्तक होते ही अख़बार और प्रचार माध्यम पढ़ाई के विविध अनुशासनों के विज्ञापनों से भर जाते हैं। तेज़ी से बदलती दुनिया, नए विषयों के उदय के बीच जनसंचार के विविध क्षेत्रों की डिग्रियाँ लेकर भी तमाम संस्थान बाज़ार में हाज़िर है। डिप्लोमा और डिग्रियों के सरकारी संस्थानों के अलावा सैकड़ों प्राइवेट संस्थान भी सामने आए हैं। साथ ही साथ विभिन्न समाचार पत्र समूहों तथा समाचार चैनलों ने भी जनसंचार शिक्षण के लिए संस्थान खोले हैं। मीडिया की दिनों-दिन चमकीली होती दुनिया के प्रति युवक-युवतियों का आकर्षण स्वाभाविक है। टीवी पर दिखने का आकर्षण इस जोश को उफान में बदल रहा है। शायद इसलिए मेट्रो के कुछ अख़बारों में ऐसे भी विज्ञापन छपने लगे हैं-'एक हफ़्ते में न्यूज एंकर'। ज़ाहिर है पत्रकारिता शिक्षा के ये परचूनिए भी सफल हैं और उन्हें भी कुछ युवा मिल ही जाते हैं। हाल के वर्षों में सामाजिक जीवन में जिस तरह के तेज़ परिवर्तन देखे गए, उससे यह सदी आक्रांत है। नई तकनीक और संचार के साधनों ने जिस तरह हमारे समय को प्रभावित किया है वह अद्भुत है। हमारे आचार, विचार, व्यवहार सबमें ये चीज़ें देखी जा सकती है। इसे प्रभावित करने में सबसे सशक्त माध्यम के रूप में उभरा है, मीडिया। अख़बार, टीवी चैनल्स, विज्ञान, इंटरनेट, फ़िल्मों, विपणन रणनीतियों और जनसंपर्क की नई प्रविधियों के समुच्चय से जो दुनिया बनती है वह बेहद सपनीली है। जहाँ पॉवर है, पैसा है, सौंदर्य है, सारा कुछ फ़ीलगुड।
जनसंचार का यह व्यापक होता फलक अब समाज को सर्वाधिक प्रभावित करने की मुद्रा में है। जनसंचार के किसी भी माध्यम के साथ जुड़ी पूंजी ने इसे बहुत व्यवहारिक बना दिया है। शायद इसीलिए यह क्षेत्र भारी संख्या में प्रशिक्षितजनों की माँग और इंतजार में खड़ा है। फ़ैशन वर्ल्ड से लेकर इवेंट मैनेजमेंट के रोज़ खुलते क्षितिज उन पेशेवरों के इंतजार में हैं जो व्यवसाय में लगी पूंजी को एक बड़े उद्यम में बदल सकें। इसके साथ ही देश के विकास तथा समाज के सभी हिस्सों तक मीडिया के पहुँच की बात की जाती है। रेडियो के नए परिवेश में वापसी ने श्रव्य माध्यम के लिए भी लोगों की माँग पैदा की है। ज़ाहिर है इस तेज़ी से विस्तार लेते क्षेत्र के लिए प्रशिक्षण की अनिवार्यता बढ़ गई है। मीडिया के बढ़ते महत्व ने जनसंचार की शिक्षा के महत्व को स्वत: बढ़ा दिया है। ऐसे में छोटे-छोटे शहरों, क़स्बों में खुल रहे जनसंचार शिक्षा के संस्थानों की भीड़ को देखा जा सकता है। मुक्त विश्वविद्यालयों तथा कई अन्य विश्वविद्यालयों ने जनसंचार और पत्रकारिता के पत्राचार पाठयक्रमों की शुरूआत कर अपनी आर्थिक स्थिति तो सुधार ली लेकिन वहाँ से निकलने वाले डिग्रीधारियों की स्थिति समझी जा सकती है। मीडिया शिक्षा के क्षेत्र में आज की सबसे बड़ी आवश्यकता इसका मौलिक माडल खड़ा करने की है। मीडिया शिक्षा ने भारत में अपनी लंबी यात्रा के बावजूद भारतीय मूल्यों और परंपराओं के आधार पर कोई अपना आधार विकसित नहीं किया है। उसकी निर्भरता बहुत कुछ पश्चिमी ढाँचे पर बनी हुई शिक्षा व्यवस्था पर है। शायद इसीलिए जनसंचार शिक्षा के संस्थानों से निकल रहे छात्र बड़ी अधकचरी समझ लेकर निकल रहे हैं। उन्हें न तो देश का इतिहास पता है, न भूगोल। संस्कृति और लोकाचार तो बहुत दूर की बात है। इसके चलते पूरी की पूरी पत्रकारिता राजनीति के आक्रांतकारी प्रभाव से मुक्त नहीं हो पाती। खबरों के शिल्प के अलावा कुछ कंप्यूटर और की-बोर्ड की जानकारी के सिवा ये संस्थान क्या दे पा रहे हैं, समझ पाना मुश्किल है।
एक समय था, जब समाज में तपकर, संघर्ष कर पत्रकार सामने आते थे, वे जीवन की पाठशाला में ही इतना कुछ सीख लेते थे कि उनके अनुभव से निकला हुआ सच पत्रकारिता की मिसाल बन जाया करता था। उन दिनों में बहुत ज़्यादा स्थानों पर पत्रकारिता के शिक्षण-प्रशिक्षण के केंद्र नहीं थे। पत्रकारिता अपने लिए नायकों की स्वयं तलाश कर रही थी। देश की स्थितियाँ भी पत्रकारिता के लिए ख़ासी अनुकूल थीं। उसके चलते तमाम क्षेत्रों में काम कर रहे दिग्गज लोग पत्रकारिता के क्षेत्र में आए। उन्होंने अपने-अपने तरीक़े से पत्रकारिता को सामाजिक परिवर्तन और जंग-ए-आज़ादी की लड़ाई के लिए उपयोग किया। वे दिन वास्तव में भारतीय पत्रकारिता के लिए आदर्श की तरह हैं। आज़ादी के बाद विभिन्न विश्वविद्यालयों में जनसंचार और पत्रकारिता के शिक्षण-प्रशिक्षण का कार्य प्रारंभ हुआ किंतु हम भारतीय पत्रकारिता का कोई माडल नहीं गढ़ पाए। शिक्षा विभागों की तरफ़ से भी मीडिया शिक्षा की घोर उपेक्षा हुई। कई विश्वविद्यालयों के तमाम विभागों में अध्यापकों का टोटा तो है ही, दृष्टि का भी घोर अभाव है। अलग-अलग तरह के पाठयक्रम और उनके अलग-अलग मूल्य भी एक बड़े संकट के रूप में सामने खड़े थे। ये दृश्य दुखी भी करता था और आहत भी। लेकिन जिस देश में उच्च शिक्षा को व्यापारियों के हवाले छोड़ दिया गया है, उस देश में ऐसे दृश्य बहुत स्वाभाविक हैं।
पत्रकारिता को एक ऐसा कर्म मान लिया गया, जिसे कोई भी कर सकता है। ज़ाहिर है उसे पढ़ाने के लिए भी हर कोई तैयार था। ऐसे मीडिया गुरू, मीडिया शिक्षा के मैदान में कूद पड़े, जो स्वयं मीडिया के क्षेत्र में पिटे हुए मोहरे थे। इससे प्रोफ़ेशनलिज्म ने पहले दिन से ही मीडिया शिक्षा से हाथ जोड़ लिए। जो पीढ़ी तैयार हो रही है, वह अपने गुरू से आगे कैसे जा सकती है? इन घटनाओं के बीच में भी कुछ छात्र 'गुड़ के चेले शक्कर' बन गए हों, या 'घिस-घिसकर शालिग्राम', तो इसे अपवाद के रूप में ही लिया जाए। कई ऐसे कालेज भी नज़रों के सामने हैं, जो पत्रकारिता की डिग्री बाँटने का उपक्रम पिछले कई दशकों से कर रहे हैं, किंतु वहाँ पत्रकारिता के किसी भी नियमित प्राध्यापक की नियुक्ति कभी नहीं रही। जादू यह कि ये कालेज भी सरकार के द्वारा चलाए जाते हैं। जहाँ सरकारी कालेजों का यह हाल हो, तो प्राइवेट संस्थाओं से ज़्यादा उम्मीद करना बेमानी है। बेहतर होगा सरकार अपने इन कालेजों में इस तरह के पाठयक्रमों पर ताला लगा दे, तो शायद पत्रकारिता का तो भला होगा ही, डिग्रियों का अवमूल्यन भी रूकेगा। ये संस्थाएं सस्ते मीडियाकर्मी भले पैदा कर लें, अच्छे पत्रकार नहीं पैदा कर सकतीं। 'पढ़े फारसी बेचे तेल’ की तर्ज़ पर इन महाविद्यालयों में किसी भी विषय का प्राध्यापक पत्रकारिता के छात्रों को पढ़ाने लग जाता है। व्यवहारिक प्रयोगों की तो जाने दीजिए, हालात यह हैं कि जमाने से 'आदमी कुत्ते को काटे तो समाचार है’ यही परिभाषा छात्रों को पढ़ाई और रटाई जा रही है।
आज मीडिया जिस प्रकार के अत्याधुनिक प्रयोगों से लैस है और आज के मीडिया कर्मियों से जिस प्रकार की तैयारी तथा क्षमताओं की अपेक्षा की जा रही है। क्या ये संस्थान ऐसे मानव संसाधन का निर्माण कर सकते हैं? किताबी बातों से अलग ये विशेषीकृत पाठयक्रमों के आधार पर आज के व्यापक हो रहे मीडिया संसार की चुनौतियों के मद्देनज़र तैयार हैं? ऐसे तमाम प्रश्नों के उत्तर हमें नकारात्मक ही मिलेंगे। जनसंचार शिक्षा, सिर्फ़ पत्रकारिता तक सीमित नहीं है, उसने जनसंपर्क से आगे बढ़कर कार्पोरेट कम्यूनिकेशन की ऊँचाई हासिल की है। विज्ञापन के क्षेत्र में अलग-अलग तरह के विशेषज्ञों की माँग हो रही है। प्रिंट मीडिया के साथ-साथ इलेक्ट्रानिक, रेडियो, मनोरंजन, वेब के तमाम संसाधनों पर लोगों की माँग हो रही है। इलेक्ट्रानिक मीडिया के विस्तार ने आज मीडिया प्रोफेशनल्स की चुनौतियाँ बहुत बढ़ा दी हैं। जनसंचार की शिक्षा देने वाले संस्थान अपने आपको इन चुनौतियों के मद्देनज़र तैयार करें, यह एक बडी ज़िम्मेदारी की बात है। शोध और अनुसंधान के प्रति हिंदी क्षेत्र की उदासीनता के किस्से मशहूर हैं। जनसंचार शिक्षा के क्षेत्र में आगे आए तमाम पत्र संस्थान एवं मीडिया समूह शायद इसीलिए इस क्षेत्र में आए क्योंकि वे परंपरागत संस्थानों व विश्वविद्यालयों की सीमाएं जान चुके थे। अपनी संस्था के लिए सही पेशेवरों को तैयार करने की चुनौती मीडिया समूहों के सामने थी। टाइम्स ऑफ़ इंडिया, प्रभात खबर, दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, द हिन्दू, आजतक, पायनियर जैसे समूहों के मीडिया प्रशिक्षण संस्थान इसी पीड़ा की उपज है। यह उन परंपरागत संस्थानों को चुनौती भी हैं जो खुद को मीडिया शिक्षा का रहबर समझते हैं। मीडिया शिक्षा के क्षेत्र में उच्चस्तरीय मानव संसाधन की उपलब्धता ज़रूरी है, क्योंकि यह सर्वाधिक रोज़गार सृजन करने वाला क्षेत्र साबित होने जा रहा है। चौथे स्तंभ की सैध्दांतिक भूमिका से परे भी मीडिया का आकार और क्षेत्र बहुत बड़ा है। एक-एक शिक्षकों के सहारे चल रहे विश्वविद्यालयों के जनसंचार एवं पत्रकारिता विभाग नए समय की चुनौतियों का मुकाबला करने वाली पीढी तैयार कर पाएँगे, इसमें संदेह है। मीडिया संस्थानों तथा मीडिया शिक्षा के परिसरों का संवाद बहाल होना भी ज़रूरी है। यह आवाजाही बढ़ेग़ी तो यह शिक्षा क्षेत्र उपयोगी बनेगा।
लेखक:
  संजय द्विवेदी
रीडर, जनसंचार विभाग,
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय,
प्रेस कॉम्पलेक्स, महाराणा प्रताप नगर,
भोपाल, मध्यप्रदेश - 462001.
123dwivedi@gmail.com

Monday, October 25, 2010

लोहरदगा में जारी है खेल.... भाष्कर-भाष्कर

झारखण्ड में लोहरदगा बाक्साईट के साथ- साथ पत्रकारिता के ऐतिहासिक पृष्ठ भूमि के लिए प्रसिद्ध है. लोहरदगा जिले में अभी भी साठ वर्षीय पत्रकार हाड़ - मांसों में घुमाते नजर आते हैं. कम से कम बीस वर्ष के पत्रकारीय अनुभव वाले दर्जन भर पत्रकार प्रेस तख्तियों वाले वाहनों में भटकते दिख जाते हैं. एशिया के सबसे छोटे जिले में शुमार लोहरदगा में हर मोहल्ले में एक ब्यूरो चीफ और चौराहे पर मिडिया कि चर्चा वाले लोग पान कि पगुराई के साथ बोलते बतियाते मौजूद हैं.
ऊपर लोहरदगा कि पत्रकारिता कि भूमिका अब लोहरदगा के पत्रकारों के बीच खेले जाने वाले खेल कि चर्चा. लोहरदगा के पत्रकार इन दिनों भाष्कर- भाष्कर खेल रहें हैं. यह नया खेल क्रिकेट और गुल्ली डंडे का मिला जुला स्वरूप है, यानि गुल्ली क्रिकेट. पक्ष और विपक्ष कि टीमें भी तैयार है बैटिंग में भी पत्रकार और बौलिंग में भी पत्रकार. लोहरदगा के वेस्ट इंड से यानि अजय पार्क साइड से हर दिन नए एंगल के साथ बौलिंग कि जाती है. और बौलिंग करने वाले को बोल्ड करते हुए भाष्कर कि ब्युरोगिरी पकड़ाते हुए पवेलियन भेज दिया जाता है. पवेलियन जाते- जाते कोणीय बोलन दाज द्वारा हर सामान्य पत्रकार को भाष्कर का मुर्धन्य ऑफर लेटर पकड़ा दिया जा रहा है.

खेल का सरदार बाबु मुशाय ..
भाष्कर - भाष्कर के इस खेल में कप्तान हमेशा कि तरह एक हीं हैं . महानुभाव को हर खबर में विशेष कोण नजर आता है इसीलिए इन्हे पत्रकार जमात में एंगल पत्ती कहा जाता है. हर दिन एक नए खेल का उदघाटन यही करते हैं...और खेल कि उडती खबरों में नए - नए एंगल भरते हैं. बाबु मुशाय विदेशी भाषा कि पत्रकारिता करते हैं और देशी भाषा के पत्रकारों पर ताने कसते हैं. बाबु मुशाय भाष्कर - भाष्कर खेल के निर्माता और निर्देशक हैं. खेल कि प्रगति और प्रसिद्धी से बाबु मुशाय हैरत से भक हैं . भाष्कर कि दौड़ में बाबु मुशाय भी दौड़ लगा रहे थे . दूसरो कि राह पर नो इंट्री का बोर्ड लगाकर खुद सीधा दौड़े जा रहे थे . दुसरे कि टांग खिचाई में इनकी टांग फस गई बाबु मुशाय के हाथ से भाष्कर फिसल गई . अब सदमे में हैं बाबु मुशाय लोगो से थोड़े कट- कट कर मिलते हैं. अपने हीं एंगल से भटक कर मिलते हैं .

बधाई और मिठाई का दौर ...
ऑफर लेटर के बाद बधाई और मिठाई का दौर लोहरदगा में जारी है . जिसके ऑफर लेटर कि चर्चा सरेआम हुई वह सुबह से शाम तक बधाइयाँ सुनता है और मिठाइयाँ बाटता है. हर चौक चौराहे पर जहाँ भी यार पत्रकार मिले पान कि पिक और सिगरेट कि कश के साथ भाष्कर कि कशमकश शुरू हो जाती है. और शुरू हो जाती है भाष्कर भाष्कर कि जोर और गहराते शाम के साथ बन जाता है शोर फिर हर कश के साथ धुंआ उड़ाते हुए किसी पत्रकार के रिश्तेदार को घसीटा जाता है . हर पान कि पिक के साथ किसी पत्रकार कि हैसियत को रौंदा जाता है. इस तरह लोहरदगा में भाष्कर - भाष्कर खेला जाता है .

शरद कि ठंड में भाष्कर कि गर्मी...
लोहरदगा में शरद ऋतू ने दस्तक दे दी शाम होते हीं ठंड कपड़ों के भीतर घुस कर देह गुदगुदाने लगता है ऐसी शरद शाम और रातों में भी पत्रकारों के बीच भाष्कर का खेल गर्म है.शहर के मुख्य चौराहे में स्ट्रीट लाइट के बीच फुटपाथ में कुर्सिया डाल पत्रकार देर रात तक जागरण कर रहे हैं. ठंड के साथ कपकपाती हथेलिओ से ताली और कटकटाते दांतों से ठहाके और गाली लगाते पत्रकार जागरण में भाष्कर से ऊष्मा प्राप्त कर रात काट रहें हैं. अब तक कि चर्चाओं में करीब दर्जन भर पत्रकार भाष्कर के ब्यूरो बन चुके हैं. पंद्रह से बीस साल के अनुभव वाले पत्रकार को हर साल के अनुभव पर एक हजार का ऑफर दिया जा रहा है. जो तजा और नए हैं उन्हें सस्ते मजदूरी और भविष्य में मिलाने वाले अनुभव के साथ पगार बढ़ाने का आश्वासन के साथ ऑफर का लेटर थमाया जा रहा है. हर रात के जागरण के साथ नया ऑफर नया लेटर और नई मजदूरी कि चर्चा बढती जा रही है.

अब तो बबुआ बनेगे सरदार ..
इस भाष्करीय ब्यूरो चीफ के खेल में दूसरी और तीसरी कतार वाले पत्रकार मन में लड्डू फोड़ते हुए दिल से चाँदी काट रहें हैं. कारण सबको लग रहा सरदार गया तो सारा कबीला अपना और काबिले कि सरदारी (ब्यूरोगिरी ) अपनी. यानि लोहरदगा में हर पत्रकार ब्यूरो बनने के मुगेरी सपने दिन रात देख रहें हैं. ये पत्रकार हर जानकर और रसुखी पत्रकारों से सरदार के विदाई कि पुष्ठी कर रहें हैं. और जहाँ रसुखी पत्रकार ने जाने कि दिन तिथि बताई तो बंदा बाबुसाहब पत्रकार डायरी लेकर उछल पड़ता है,और चेहरे में हसी का ग्लैमर साफ झलक जाता है. ग्लैमर का कारण भी स्पष्ट है कुछ हीं दिन हुए हैं दो साल के दैनिक जगराते से भारत कदम रखे हुए. आते हीं सरदार के जाने कि खबर सरे शाम आम हो गई.इस बाबुसाहब पत्रकार बनने में कुछ और आराम हो गई सो अपनी सरदारी और अपने कबीले में राज़ करने कि ख़ुशी दोगुनी हो गई. छात्र रूपी एक कांटा तो पहले हीं प्रबंधन ने पहले हीं राजधानी में आयात करा लिया सो दोगुनी ख़ुशी चौगुनी हो गई. ऐसे भी बाबुसाहब पत्रकार भारत में रह कर लोहरदगा के हर मिडिया समूह में अपना रक्त बीज बोये हुए हैं .
सरदार बदलने कि खबर से भाष्कर - भाष्कर के साथ अब तो हिंदुस्तान भी खेल बन गया है. नए ऑफर के साथ हिंदुस्तान के सरदार भाष्कर गए तो हिंदुस्तान का सरदार कौन बने ? इस प्रश्न का उत्तर करोड़ पति का सवाल बन गया है. सारे लाइफ लाइन ख़त्म हो गए चार विकल्प तैयार हैं खेल चतुर कोणीय हो गया है मजा चौगुना.खेल को छोड़ कर गए तो सरदारी गई. और हारे तो इज्जत ...

ज्योतिष बना दाढ़ी का तिनका ..
भाष्कर के ब्यूरो बनने के दौड़ में ये बाबा भी थे. खूब दौड़ लगाई सोर्स और पैरवी भी चारो धाम से आई हर चर्चाओं में कर बैठे लड़ाई . थक हार कर बाबा ने ज्योतिष के दरबाजे शीश नवाई...ज्योतिषी जी ने दस उँगलियों में चार अंगूठी है थमाई ... बाबा हुए खुश लगा ब्यूरो कि कुर्सी है अब हाथ आई. बाबा जी रह गए हाथ में अंगूठी मलते और बाजी धृतराष्ट्र के सारथी ने है उड़ाई . अंगूठी पहने हाथो से बाबा दाढ़ी में फेरते हाथ , जगह जगह कर रहे है गुस्से का इजहार. कभी कोसते पत्रकारों को तो कभी भाष्कर पर करते गाली कि बौछार. हर राह पर एंगल बताने वाले एंगल पत्ती से बाबा गए हैं चिढ जो किसी मोड़ पर मिल जाये एंगल पत्ती तो बाबा जमा दे हाथ दो चार .

भाष्कर के लिए निर्णय लेने का वक्त ...
लोहरदगा में अभी तक भाष्कर ने अपना रुख तय नहीं किया है. हर पत्रकार भाष्कर में शामिल होना चाह रहा है. लेकिन भाष्कर है कि एक ठोस निर्णय पर नहीं आ रहा है जिसका नतीजा हो रहा है कि लोहरदगा में भाष्कर के ब्यूरो पद को लेकर चर्चा अफवाह बनती जा रही है कई पत्रकार आशा से सदमे कि स्थिति में हैं. सबसे बुरा हाल भाष्कर में शामिल हुए मौजूदा पत्रकारों कि है भाष्कर ने तीन लोगो को चुन कर रखा लेकिन सर का ताज किसी को नहीं सौपा . इन लोगो के लिए उहापोह कि स्थिति यही है कि किसकी सरदारी में चलेगी सरकार बेहतर हो कि भाष्कर आशंकाओ के परे जा कर एक फैसले पर पहुंचे ताकि भाष्कर के कबीले में सरदारी प्रबंधन लौटे . 
नोट : लेखक अभिषेक शाश्त्री हैं. 

Thursday, October 7, 2010

अयोध्या से दिल्ली तक...!

संपूर्ण विश्व के देशों में अयोध्या से दिल्ली तक की चर्चा हैं। चर्चा इस बात की है आखिर भारत जैसा देश अयोध्या जैसे मसले पर कैसे शांत रहा और कल तक भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ रहा कॉमनवेल्थ गेम्स आज कैसे अपने शानदार आयोजन के लिए पूरे विश्व से बधाई संदेश प्राप्त कर रहा हैं, जबकि कॉमनवेल्थ गेम्स व अयोध्या मुद्दे को लेकर हमारा पड़ोसी देश पाकिस्तान भी खूब शेखी बघार चुका हैं।
अयोध्या --- नाम लेते ही, 6 नवम्बर 1992 का चित्र उभरता है, जब कारसेवकों ने बाबरी मस्जिद का विध्वंस कर डाला, और भगवान श्रीराम की बालस्वरुप जिसे रामलला कहते हैं, उनकी प्रतिमा विध्वंस हुए जगह पर आनन फानन में एक टेंट बनाकर प्रतिस्थापित कर डाली। इसे लेकर पूरे देश में कई जगहों पर दंगे हुए, भारत की छवि को गहरा धक्का लगा, ऐसे भी ये कोई पहली घटना नहीं थी, राम और अयोध्या के नाम पर कई बार ऐसी हिंसक घटनाएं हुई हैं, पर जब 30 सितम्बर को अयोध्या का अदालती फैसला आया, तब देश में एक खून का कतरा भी नहीं बहा, इस पर सभी आश्चर्यचकित हैं, केवल भारत के ही लोग नहीं, बल्कि विश्व के सभी देश के लोग व मीडिया जगत भी, कि आखिर भारत आज शांत क्यों हैं। वो भारत जो हर छोटे-बड़े मुद्दे पर एक दूसरे से भिड़ जाता हैं, आज क्यों नहीं भिड़ा।
तभी ऐसे हाल में हमारे देश के ऋषि मनीषियों की याद बरबस आ जाती हैं कि जब बिगड़ने के समय आते हैं तो हालात बिगड़ने के हो जाते हैं और जब संवरने के दिन आते हैं तो हालात संवरने से हो जाते हैं। मैं देख रहा हूं कि भारत के कई संतों ने 19 वीं शताब्दी के दौरान विश्व के कई देशों में प्रवास के दौरान कहां था कि 21 वीं सदी भारत का हैं, और आज 21 वीं सदी के दस साल गुजरने को तैयार हैं, और जो लक्षण दिखाई पड़ रहे हैं, उससे हमें एहसास हो रहा हैं कि सचमुच 21 वीं सदी भारत का हैं और ये इतिहास शायद अयोध्या के द्वारा ही लिखा जाय तो अतिश्योक्ति नहीं होगी।
ज्यादातर तथाकथित बुद्धिजीवी राम को काल्पनिक मानते हैं, कुछ तो राम के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लगा देते हैं कि राम का जन्म कभी हुआ ही नहीं था, पर ऐसा कहनेवाले भूल जाते हैं कि राम भारत के प्राण हैं, आत्मा हैं, राम के बिना भारत की परिकल्पना नहीं की जा सकती, और राम के आधार को किसी भी प्रकार से चुनौती नहीं दी जा सकती। ऐसे भी बिना राम की कृपा के भारत अपनी खोयी प्रतिष्ठा को प्राप्त नहीं कर सकता। राम को हिन्दू और मुसलमान में बांटना भी मूर्खता हैं। राम तो सभी के हैं, उन पर एकाधिकार कैसे हो सकता हैं। राम की शान में तो कई मुस्लिम कवियों और बुद्धिजीवियों ने भी बहुत कुछ लिखे हैं। सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तां हमारा लिखनेवाले अल्लामा इकबाल ने तो राम को इमामे हिन्द तक कह डाला। क्या कोई बता सकता हैं कि इमामे-हिन्द का मतलब क्या होता हैं।
गर सच पूछा जाये तो राम के नाम पर झगड़े आज तक भारत में नहीं हुए, भारत में जब भी झगड़े हुए तो राजनीति के चलते, राजनीतिबाजों के चलते, और ये राजनीतिबाज सभी दलों में हैं, सभी अपने अपने ढंग से राम को देखते हैं और इसी दौरान वे सब कुछ कर डालने की कोशिश करते हैं, जिसमें गांधी के राम दम तोड़ रहे होते हैं। गांधी के राम की गर आप परिकल्पना करें तो साफ पता लग जायेगा कि वे किस राम को पसंद करते है। गर गांधी राम राज्य की परिकल्पना अथवा सुराज की परिकल्पना करते थे, तो गांधी के राम किस आदर्शवादिता पर खड़े उतरते थे। ये उनसे पूछिये, जिस राजनीतिबाजों के बयान, बेडरुम के चादर की तरह, राम के नाम पर बदलते रहते हैं।
अयोध्या में जब फैसले आ रहे थे, तब कई मीडियाकर्मियों ने अखबारों में लिखा और कई इलेक्ट्रानिक मीडिया के दोस्तों ने दिखाया कि आज के भारत का युवा राम में कम, मंदिर – मस्जिद विवाद में ध्यान कम, और अपने कैरियर, पावर और अपनी आर्थिक शक्ति मजबूत करने पर ज्यादा ध्यान दे रहा हैं, इसलिए अयोध्या में राम मंदिर बने अथवा न बनें इस पर वो ध्यान नहीं देता। जबकि सच्चाई ये हैं कि इस प्रकार के युवाओं की तादाद स्वतंत्रता आंदोलन में भी थी, जिसे आजादी के आंदोलन में दिलचस्पी कम और अन्य कामों में दिलचस्पी ज्यादा थी। ऐसे लोगों के तादाद हर युग में होते हैं जिन्हें देश से कम और अपने आप में ज्यादा दिलचस्पी होती हैं, पर जो राष्ट्र की चिंता करते हैं उनकी तादाद सदियों से बहुत ही कम होती हैं। आज के युवा जिन्हें राष्ट्र में दिलचस्पी हैं, वे अयोध्या के राम मंदिर को मंदिर मस्जिद के रुप में नहीं लेते, वे राष्ट्र के स्वाभिमान से इसे जोड़ते हैं, बात आज राम मंदिर के निर्माण की नहीं, मुद्दा इस बात का हैं कि भारत राम के नाम से जाना जायेगा या विदेशी आक्रांता बाबर के नाम से। अब तो अदालत ने भी मान लिया है कि विवादित स्थल रामजन्मभूमि स्थल हैं, जहां बाबर ने मंदिर की जगह मस्जिद बना दी। तो क्या उस विदेशी आक्रांता द्वारा निर्मित मस्जिद को इसलिए छाती से लगाकर रखा जाय कि उसने हमारे स्वाभिमान को ठेस पहुंचायी या स्वतंत्रता के बाद उस काम को करें, जिससे हमारे पूर्वज गौरवान्वित हो। क्या ये सहीं नहीं कि स्वतंत्रता के बाद सोमनाथ मंदिर का हमारे सरदार वल्लभ भाई पटेल ने उद्धार करवाया था, क्यों उद्धार कराया था, इसकी जानकारी क्या किसी के पास हैं गर नहीं हैं, तो क्या ये जानने की कोशिश की।
हमें अच्छी तरह पता हैं कि देश का कोई सच्चा मुसलमान, रामजन्मभूमिस्थल पर मंदिर निर्माण हो, इसका विरोध नहीं करता, विरोध तो वो करते हैं, जिनकी राजनीति की दाल नहीं गलती, जैसे देखिये, कल तक हर छोटे छोटे मुद्दे पर अदालत का सम्मान करनेवाले, राजनीतिबाज और उनके समर्थक कैसे इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आये फैसले को राजनीति के चश्मे से देख कर बयान दे रहे हैं। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले को गलत ठहरा रहे हैं, चुनौती दे रहे हैं और एक बार फिर वे उस वर्ग को बरगलाने का काम कर रहे हैं जो अब रामजन्मभूमि पर अलग राय रख रहा हैं। ये वे लोग हैं, जिन्हें लग रहा हैं कि इस प्रकार के फैसले से उनकी राजनीति बर्बाद हो जायेगी, इसलिए वोट और राजनीतिक समर्थन पाने के लिए वे हर प्रकार का बयान दे रहे हैं, जिसकी खुलकर आलोचना होनी चाहिए, पर खुशी इस बात की हैं कि कई मुस्लिम संगठनों ने ही उन राजनीतिबाजों के बयान की हवा निकाल दी। कुछ मुस्लिम बुद्धिजीवी संगठनों ने तो अब इस मुददे को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती न दी जाय, इसकी अपील भी की हैं, साथ ही कई मुस्लिम संगठनों ने रामजन्मभूमि स्थल पर मंदिर बनाने की पहल भी की हैं, जो ये बताने के लिए काफी है कि भारत अब किस ओर चल पड़ा हैं।
जान लीजिये, ये भारत अब पूरी तरह से परिपक्व हो गया है. भारत की जनता पूरी तरह से परिपक्व हो गयी हैं। वो दिन अब दूर नहीं कि ये मुसलमान, हिन्दूओं के साथ मिलकर विवादितस्थल जो अब विवादित नहीं रही हैं, एक साथ मिलकर राममंदिर का निर्माण करेंगे और दूनियां को दिखायेंगे कि भारत अब वो राम के नाम पर लड़ने भिड़नेवाला भारत नहीं, बल्कि राम के नाम पर एक साथ चलनेवाला भारत हैं, वो अब मीडिया और राजनीतिबाजों के चिकनीचुपड़ी बातों में न आकर भारत की एकता अखंडता को मजबूत करनेवाले मार्ग को प्रशस्त करनेवाला भारत हैं। अब इसे कोई छू नहीं सकता, बस उसका लक्ष्य सामने हैं, अपने देश को सर्वोच्च शिखर पर ले जाने का.............................। उसका उदाहरण भी साफ साफ दिखाई पड़ रहा हैं, क्योंकि इसी 21 वीं शताब्दी में भारत पर राम की कृपा स्पष्ट रुप से नजर आयी। जब पूरा विश्व आर्थिक मंदी से जूझ रहा था, जहां विकसित राष्ट्र के बैंकों का समूह औंधे मूंह गिर रहा था, वहीं भारत पर इसका प्रभाव न के बराबर था। भारत आर्थिक रुप से मजबूती से खड़ा रहा। 2007 में महात्मा गांधी जिनकी प्रार्थना ही राम से शुरु हुआ करती थी, उनके जन्मदिवस पर संयुक्त राष्ट्र संघ ने अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस घोषित कर भारत को प्रतिष्ठा दी। विश्व के कई देशों में भारतीय आर्थिक रुप से मजबूत होकर, भारत का लोहा मनवा रहे हैं, कई देशों में तो भारतीयों का प्रत्यक्ष रुप से शासन चल रहा हैं तो कहीं अप्रत्यक्ष रुप से। कई देशों में तो भारतीय मूल के लोगों ने अपनी प्रतिभा से सभी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया हैं, तभी तो अमरीका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भी सभी से भारतीयों से सीख लेने की अपील तक कर डाली और अब दिल्ली की बात कामनवेल्थ गेम्स जो भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ रहा था, आज वो पूरे विश्व में शानदार आयोजन के लिए तालियां बटोर रहा हैं, ये हैं राम के देश का कमाल, ये राम की कृपा। बस इसे आध्यात्मिकता की नजरों से देखिये, भारत त्यागभूमि हैं भोगभूमि नहीं। 
 
नोट : लेखक कृष्ण बिहारी मिश्रा हैं. जो फ़िलहाल रांची स्थित न्यूज़ ११ में कार्यरत हैं. 
लेखक के ब्लॉग:  http://vidrohi24.blogspot.com/
संपर्कशुत्र:  <mishrakb24@gmail.com> 

Wednesday, September 15, 2010

अनुच्छेद -१९ और मीडिया के सवाल l

आज एक अच्छी पहल देखने को मिली । प्रभात खबर ने अपने एडिटोरियल पेज की लेआउट बदल दी है । पहले दिन का पहला अग्रलेख ही मीडिया के बड़े सवाल का है । पुण्य प्रसून बाजपेयी ने सवाल उठाया है की "कैसे बताएं की मीडिया बिका हुआ है ?" , प्रभात खबर के इस पेज का नाम है अभिमत । इस अभिमत में कई कालम हैं । जीसमे 'प्रभात खबर दस्तावेज' और 'अपने फ़रमाया' प्रमुख है । इनसब से परे जो खास है वो है इसका 'लेटर टूएडिटर कालम' । प्रभात खबर ने अपने इस लोकतंत्रीय कालम का नाम रखा है - "अनुच्छेद - १९" ।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद -१९ अभियक्ति की स्वतंत्रता से जुड़ा है । मर्यादित स्वतंत्रता के साथ अपनी बात कहने की आजादी का अनुच्छेद । मीडिया भी इस अनुच्छेद से आजादी पातीहै । आज इस आजादी ने ही मीडिया को स्वछंद बना दीया है । बहुत सीधी सी बात है की आजादी और स्वतंत्रता में बहुत अंतर नहीं होता है । आजादी की मर्यादा से जरा आगे बढे नहीं की आजादी स्वछंदता में बदल जाती है । आजादी और स्व्चंद्ता में बस अंतर है तो नियत का । आजादी में जहाँ नियत का खोट आया तो वो स्वछंदता में बदल जाती है । अभिब्यक्ति में जहाँ स्वछंदता आई तो ठाकरे बनते देर नहीं लगती । कमोबेस यही हालत आज मीडिया की भी है मीडिया में यह कहना की अनुच्छेद १९ की स्तिथि ठीक ठाक है, तो वो शायद मुगालते में हो ।
मीडिया आज इसी भरम में है की वो किस खामोसी का आवाज बने और किस चुप्पी को शब्द दे । खुद मीडिया को भी अपने इस दायीत्तव तय करने में असमंजस बना हुआ है । दरअसल मीडिया आज एक शोर बनता जा रहा है , एक आनावश्यक शोर । इस शोर में सारी स्वतंत्रतायें टूट गयी है । बस वर्जनाओं का ढहाना बाकि रह गया है । आज जिस कर्तब्य पूर्ण अनुच्छेद १९ की मीडिया को जरुरत है वो बहुत कम दिखता है ।
फिर पुण्य प्रसून जी के सवाल पर की कैसे बताएं की मीडिया बिका हुआ है । आज इस सत्य को बताने की जरुरत ही नहीं । अब तो गाँव वाले भी जानने लगे हैं की मीडिया के लोग सच के साथ बलात्कार कैसे करते हैं । सामने घटना कुछ और है और मीडिया में कहानी कुछ और । कई बार तो पूरी की पूरी कहानी ही गायब हो जाती है । मीडिया में आज नियत का खोट भर गया है । यही कारन है की कलम से लेकर कागज तक , और शब्द से आवाज तक मीडिया में बिक रहा है । और अभिब्यक्ति बेचारी मीडिया के पैदा किये गए शोर में दबती जा रही है । स्वतंत्राएँ हाशिये में है , मर्यादाएं ताक पर , स्वछान्दतायें हावी है और मीडिया अपनी जमीं छोड़ हवा में है ।
बहरहाल पुण्य प्रसून जी जब नियत का खोट हो तो जवाब देना मुश्किल हो जाता है , और जो जवाब दीया जाता है उसमे भी शंदेह बना रहता है । ऐसे में कौन कहे की बिका हुआ कौन है । लेकिन परभात खबर को बधाई की पाठको कम से कम लोकतान्त्रिक तरीके से रखा है । और अभिब्यक्ति की स्वतंत्राएँ एक सही रह में बड़े । प्रभात खबर को नए आत्मा के साथ और आगे बढे । ये लेख फ़रवरी २०१० को लिखी गयी थी.

अभिषेक शास्त्री
नोट : लेखक (अभिषेक शास्त्री) ई टी वी न्यूज़ लोहरदगा के लिए सवांदाता हैं. ये इसी विभाग के छात्र रह चुके हैं.

लेखक का ब्लॉग : http://awaramedia.blogspot.com/
संपर्क: abhi.chhotu@gmail.com


मोबाइल नंबर :-919471181600
 

ये ..............., शब्दों को भी खाय जात हैं

कुछ दिनों पहले एक महिला संगठन ने जुलूस निकालकर अपना विरोध दर्ज कराया . उनकी मांग थी, कि फिल्म "पीपली लाइव" के उस गाने को हटा दिया जाये जिसमे डायन शब्द का इस्तेमाल किया गया है . बड़ी हैरत की बात है कि अपनी सक्रियता दिखाने और अपने संगठन को महिलाओं के अधिकार का सरमायादार जाहिर करने के लिए भाषा के विकास के एक खंड को ही वे "खाने "की कोशिश कर रहे हैं . डायन शब्द से उनको सिर्फ इसलिए चिढ है क्योंकि यह स्त्री बोधक है . कल को जाकर पुरुषवादी संगठन भूत प्रेत . पिशाच जैसे शब्दों पर भी ऐतराज करेंगे और पता चला कि हिंदी के कोष के हजारो शब्द लापता हो गए . और ये ऐसे शब्द हैं जो देशज और लोक शब्द होने की वजह से सीधे दिलो तक पहुचते हैं . पूरा प्रसंग पूरी कहानी या पूरा मतलब महज एक शब्द या एक लोकोक्ति पर निछावर होते हैं . अब उनके चलन को रोकने की मांग निहायत ही अलोकतांत्रिक, लोक भाषा विरोधी और बचकानापन है. कई शब्दों को पहले ही असंवैधानिक घोषित करके हिंदी को कमजोर करने की कोशिश की जा चुकी है . महंगाई डायन खाय जात है ...... गीत इसलिए लोकप्रिय हुआ क्योंकि यह लोकभाषा में गाया हुआ है .. इसने पूरे माहौल को शब्दों से प्रतिबिंबित किया है . लोगो की भावनाओ का सटीक अभिव्यक्ति है . इससे आसान क्या हो सकता है कि महंगाई को यह लोक गीत बड़े सरल भाषा में दिलो तक पंहुचा दे .
एक प्रकरण पढ़ा है कही .... ऋषि अष्टावक्र जनक के दरबार में गए . अष्टावक्र का शरीर आठ जगहों से टेढ़े हो गए थे . वह परम विद्वान थे . जनक के दरबार में विद्वानों ने उनकी चाल देखकर हँसना शुरू कर दिया . अष्टावक्र सभा से वापस लौटने लगे . जनक ने वापस लौटने का कारण पूछा तो अष्टावक्र ने कहा कि वो तो विद्वानों की सभा समझकर सभा में आये थे लेकिन यहाँ तो केवल चमार बैठे हैं जिनकी सोच और नजर महज चमड़े तक है . जनक ने माफ़ी मांगी . सन्दर्भ में इस प्रकरण की चर्चा इसलिए कि चमार शब्द को असंवैधानिक माना गया है . इसका इस्तेमाल बड़े हिसाब से करना होता है . लेकिन अष्टावक्र प्रकरण को देखे तो साफ़ जाहिर होगा एक शब्द का कितना व्यापक मतलब होता है . यह किसी जाति, समुदाय, वर्ग, लिंग या संसथान का मोहताज नहीं बल्कि अभिव्यक्ति का सरल माध्यम है . ऐसे हालत में किसी भी शब्द पर प्रतिबन्ध लगाना गलत है . हाँ नीयत और सन्दर्भ सही होना चाहिए .
हिन्दुस्तान में आम बोलचाल में "साला" शब्द का इस्तेमाल धड़ल्ले से होता है . . दोस्त दुश्मन की परिधि से बाहर इसका इस्तेमाल आम है . इसका शाब्दिक अर्थ .पत्नी का भाई .. होता है . इसको दूसरे नजरिये से देखे तो जिसे आप आम बोलचाल में साला कह रहे हैं उसकी बहन आपकी पत्नी हुई . अगर इसे लेकर ऐतराज और गुस्सा जाहिर किया जाने लगा तो हर मुहाले में चौबीसों घंटे फसाद होता रहे . लेकिन कई बार तो इस शब्द ( या गाली ) के बिना तो वाक्य का पूरा अर्थ ही लगाना मुश्किल हो जाता है . उसमे वह भाव नहीं आ पाता है जो वक्ता या लेखक कहना चाहता है .
हिंदी की भलाई चाहते हो तो ऐसे बचकाने सवाल खड़ा कर इस भाषा के अस्तित्व पर ही उंगली न उठाइए . कम लोगो को पता है . हिंदी की वर्तनी के एक एक अक्षर के कई कई मायने होते हैं . मसलन, क का मतलब ब्रह्मा ,कामदेव , काल , शब्द, जैसे कई अर्थ होते है , उसी तरह ख का मतलब आकाश ,हर्ष जैसे अनेक अभिप्राय होते हैं . हिंदी के अक्षर तक इतने संपन्न है तो शब्दों के क्या कहने ? यह स्थिति केवल व्यंजन वर्ण के शब्दों के लिए नहीं बल्कि स्वर वर्ण के शब्दों के लिए भी है . जाहिर है जो तत्सम और देशज शब्द हिंदी में प्रयोग हो रहे है उनके विकास का एक लम्बा काल रहा होगा . इतना ही नहीं शब्द के बनने के बाद उसके प्रचलन में आने और सर्वग्राह्य होने में भी वर्षो लगे होंगे .
इसीलिए शब्द गलत या बुरे नहीं होते, सन्दर्भ गलत हो सकता है, प्रयोग करने के तरीके गलत हो सकते हैं और विकसित हो रहे हिंदी के शब्दों पर प्रतिबन्ध लगाने की मांग एक सभ्यता और संस्कृति पर आघात है . जो नए शब्द आते हैं उसे हम हिंदी में स्वीकार करने को तैयार हैं तो बने बनाये शब्दों को कूड़ेदान में डालने की गलती हम क्यों कर रहे हैं.

योगेश किसलय
नोट : लेखक (योगेश किसलय ) इंडिया टीवी के झारखण्ड ब्यूरो प्रमुख है. और इसी विभाग के छात्र भी रह चुके हैं. 
संपर्क: yogeshkislaya@gmail.com

Friday, September 10, 2010

मीडिया-घटिया प्रोफेशनल्स भविष्य के लिए खतरनाक

टेलीविजन न्यूज हो या अखबार- सूचना, मनोरंजन और शिक्षम का ज़रिया हैं। ये बैलेंस शीट का एक कॉलम है। दूसरे कॉलम को देखिए तो ये प्रचार का माध्यम भी हैं। एक को आप कंटेंट कह सकते हैं और दूसरे को विज्ञापन। दोनों के बीच आनुपातिक तालमेल से ही मीडिया का कारोबार चलता है।
कंटेट दर्शक या पाठक जुटाता है और इन्हीं दर्शकों-पाठकों तक अपना संदेश पहुंचाने के लिए विज्ञापनदाता आपके पास आता है। जितना आप कंटेंट पर खर्च करते हैं उतना अगर विज्ञापन से हासिल कर लेते हैं तो आप के अस्तित्व को कोई खतरा नहीं है। अगर विज्ञापन से उतना नहीं जुटा पाते तो संकट है। सवाल उठता है कि विज्ञापन से अगर खर्च वहन नहीं हो रहा तो क्या किया जाए? बस इसी सवाल के जवाब में नॉन प्रोफेशनल लोग पेड न्यूज़ और दलाली का धंधा शुरू कर देते है। जबकि एक अच्छा प्रोफेशनल इस सवाल का जवाब भी तरीके से खोज सकता है।


सबसे पहले तो ये समझने की ज़रूरत है कि रोग कहां है।
क्या कंटेंट में इतना दम नहीं कि वो दर्शक जुटा पाए और इसीलिए विज्ञापनदाता कम आते हैं?
या विज्ञापन से जितना पैसा जुटाया जा सकता है उससे ज्यादा पैसा कंटेंट पर खर्च किया जा रहा है?
या सबकुछ ठीक है लेकिन दर्शकों और विज्ञापनदाताओं तक पहुंच बढ़ाने की ज़रूरत है?
ऐसी कई व्यावसायिक स्थितियां हो सकती हैं, जिन्हें ठीक रखने की सतत चुनौती का नाम ही प्रोफेशनलिज्म है। मीडिया हाउस में शीर्ष पर बैठे लोगों का अनुभव,उनकी दूरदर्शिता,उनका रणनीतिक कौशल इसी काम के लिए होता है। लेकिन ये इतना आसान नहीं है। ये वाकई बार-बार,लगातार परीक्षा देते रहने जैसा है। ठीक वैसे ही जैसे क्रिकेट में राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ियों के साथ होता है। पर्फार्मेंस व्यक्तिगत स्तर पर और सफलता टीम के स्तर पर। एक अच्छा खिलाड़ी कोशिश करता है कि हमेशा बेहतरीन प्रदर्शन करे और टीम भावना से खेले। इसके लिए उसे सतत अभ्यास में रहना पड़ता है, अध्ययन करना पड़ता है, फिट रहना पड़ता है.....

मीडिया में ऐसे खिलाड़ियों की कमी है। आज शीर्ष पर बड़ी संख्या में ऐसे लोग मौजूद हैं, जिन्होंने बाजारीकरण के दौर में पहले अपने लिए शॉर्टकट तलाश किए और अब अपने सेठों के लिए शॉर्टकट फार्मूले ढुंढ-ढुंढकर निकाल रहे हैं। सेठ भी ज्यादातर ऐसे हैं जिन्होंने शॉर्टकट में लम्बी छलांग लगाई है और सीधे रास्ते चलने का संयम खो चुके हैं। आज मीडिया में सबसे ज्यादा वैसे निवेशक रुचि दिखा रहे हैं जिन्हें व्यवस्था में सेंध लगानी है- जैसेकि बिल्डर्स। जबकि वैश्वीकरण के नए दौर से गुजर रहे इंडिया में न अच्छे युवा प्रोफेशनल्स की कमी है और ना ही दूरदृष्टि वाले निवेशकों की।

फिलहाल मीडिया में जो कुछ चल रहा है उससे निश्चित तौर पर भविष्य का बंटाधार होगा। आखिरकार नई व्यावयायिक सोच औऱ रणनीति को जगह मिलेगी, लेकिन कुचाल बुद्धि मठाधीश पूरा जोर लगाकर उनका रास्ता रोक रहे हैं। मीडिया पर विज्ञापनदाता इसलिए आता है कि उसे अपने उत्पाद के संबंधित संदेश आम लोगों तक पहुंचाना होता है। मीडिया की साख इसमें उसकी मदद करती है। विज्ञापनदाता उत्पाद के हिसाब से मीडिया का चयन करता है। लेकिन फिलहाल जो कुछ हो रहा है उससे मीडिया की साख तो तगड़ा झटका लग रहा है। इस झटके का शिकार हो रहे मीडिया हाउस इतिहास की गर्त में समा जाएंगे। वो या तो मिट जाएंगे या बड़े व्यावसायिक घरानों के हाथों बिकने को मजबूर हो जाएंगे। और इसी के साथ युवा मीडियाकर्मियों की एक पौध भी अर्धविकसित रह जाएगी।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हमारी राष्ट्रीयता की जान है,हमारे विकास की रीढ़ है। नई आर्थिक व्यवस्था में पूंजी का प्रवाह बढ़ा है। सैकड़ो की संख्या में छोटे निवेशक मीडिया का रुख कर रहे हैं। जाहिर है उन्हें अपने व्यावसायिक हित भी देखने हैं और मीडिया के कारोबार में भी घाटा नहीं उठाना है। लेकिन उन्हें इस व्यवसाय की समझ नहीं है और संयम का सर्वथा अभाव है। ऐसे में उन मीडियाकर्मियों की चांदी हो गई है जिनके पास दिखलाने के लिए अनुभव है, मिलवाने के लिए कुछ रसूखदार लोग हैं और समझाने के लिए शॉर्टकट फार्मूले हैं। भले अपने प्रोफेशन की बारीकियों से उनका परिचय ना हो, आम दर्शक-पाठक से जुड़ पाने लायक समझ ना हो और कर दिखाने की क्षमता ना हो।

नतीजा कारोबार शुरू करने से पहले कमाई की गारंटी दी जाती है, कारोबार शुरू होते ही ब्लैकमेलिंग, सौदेबाजी और सरकारी भीख का सिलसिला शुरू हो जाता है और उम्मीदों का दिया जलने के साथ ही बुझ भी जाता है। जबकि ऐसे छोटे-छोटे मीडिया हाउस इस देश की ज़रूरत हैं। ये बड़े घरानों को संतुलित करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते हैं। ये मीडिया के क्षेत्र में तैयार हो रहे बेहतरीन मानव संसाधन के लिए मंच हो सकते हैं।


मनोज श्रीवास्तव
नोट: लेखक टीवी पत्रकार हैं (मनोज श्रीवास्तव), इन्होने अपने जीवन के दो दशक से भी ज्यादा पत्रकारिता के नाम किया है. ये सहारा समय और न्यूज़ ११ में अपनी लोहा मनवा चुके हैं. और ये इसी विभाग के छात्र भी रह चुके हैं.
संपर्क:
पता       277, Seemant Vihar,kausambi
Ghaziabad, India 201010
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पत्रकारिता का नया आयाम

पत्रकारिता कोई पेशा नहीं , ये तो एक प्रवृतिहै। इस लिहाज से देखें तो जनसंचार के नए साधन जैसे कि मोबाइल,इंटरनेट एक क्रांति की शुरूआत हैं। भारत में और खास कर हिन्दी पट्टी में मेनस्ट्रीम की पत्रकारिता पर इनका दबाव अब दिखने लगा है। हालांकि संगठित तौर पर इन माध्यमों को भी पेशेवर रूप देने की कोशिश जारी है,लेकिन नेटवर्किंग के ज़रिए इसको लगातार चुनौतियां मिलती रहेंगी। देश में लाखों की संख्या में मौजूद पत्रकार अपनी नौकरी को गुलामी एक नया रूप समझने लगे हैं और उनके विद्रोह का रास्ता अब खुल चुका है। इसके अलावा करोड़ो की संख्या में जो लोग संचार माध्यमों से जुड़ रहे हैं, वो कहीं ना कहीं तथ्यों को सामने लाने में छोटी-छोटी भूमिकाएं भी निभा रहे हैं। कई लोगों ने तो जैसे जेहाद छेड़ दिया है।
इसमें सबसे ज्यादा ध्यान देनेवाली बात ये है कि इंटरनेट या मोबाइल के जरिए संवाद स्थापित करने वाला व्यक्ति प्रभावोत्पादक (effective) है। वो बेहद निजी पलों में से समय निकालकर, वयक्तिक रूप से शामिल होता है और दूसरों को प्रभावित करने की कोशिश करता है। जाहिर है वो जो कुछ ग्रहण करता है उसपर भी गंभीरता से अमल करने की कोशिश करेगा। यानि यहां संवाददाता और संवाद ग्रहण करने वाला दोनों एक साथ एक ही व्यक्ति में मौजूद होते हैं। हालाकि सूचना देने की प्रवृति अभी उतनी प्रबल नहीं हुई है, लेकिन इसके बीज फूटने लगे हैं।
मुख्तसर ये कि माध्यम की विशिष्टता को छोड़ दें तो पत्रकारिता के मूल सरोकार पर नए मीडिया का गहरा असर पड़ने वाला है। अब ये कितनी जल्दी कितना असर दिखाएगा ये इस बात पर निर्भर करता है कि आधारभूत संरचना के विकास में कितना वक्त लगता है। निजी भागीदारी और प्रतियोगिता के दौर में इसमें भी उत्साहवर्धक नतीजों की उम्मीद की जा सकती है। तो क्या साल दो हजार बारह-तेरह तक?


मनोज श्रीवास्तव



नोट: लेखक टीवी पत्रकार हैं (मनोज श्रीवास्तव), इन्होने अपने जीवन के दो दशक से भी ज्यादा पत्रकारिता के नाम किया है. ये सहारा समय और न्यूज़ ११ में अपनी लोहा मनवा चुके हैं. और ये इसी विभाग के छात्र भी रह चुके हैं.
पता277, Seemant Vihar,kausambi
Ghaziabad, India 201010
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पत्रकारिता विभाग

रांची युनिवेर्सिटी के पत्रकारिता विभाग का बड़ा ही पुराना इतिहास रहा है. यहाँ से तालीम हासिल कर कई छात्र आज देश और दुनिया में नयी क्रांति ला रहे हैं. ऐसा नहीं है की यहाँ से जितने भी छात्र पास हो चुके हैं वो पत्रकारिता में ही अपना लोहा मनवा रहे हैं बल्कि हर किसी क्षेत्र में अपनी पहचान दर्ज करा रहे हैं. शुन्य से शुरू हुआ इस विभाग का सफ़र आज काफी विस्तृत हो चूका है. आज सिर्फ झारखण्ड के ही नहीं बल्कि अन्य दुसरे प्रदेश के छात्र भी इस विभाग में विद्या अर्जन कर रहे हैं. पहले यहाँ सिर्फ बीजेएमसी का ही पठन-पाठन होता था लेकिन छात्रों की बढती रूचि को देखते हुए आज यहाँ एम्जेएम्सी की भी पढाई शुरू हो चुकी है.