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किसी भी संस्थान के पूर्ववर्ती छात्रों की पेशेवर सफलता उस संस्थान से मिलने वाली उपाधि का मोल तय करती है। इसके अलावा दूसरी बातें भी हैं, लेकिन ये उपाधि का मोल तय करने में सबसे अहम यही है। लेकिन सिक्के का दूसरा पहलु ये है कि उपाधि का मोल पूर्ववर्ती और वर्तमान सभी छात्रों की सफलता का आधार तय करता है। समझने की कोशिश करिए। ...जोशारू, हमारे-आपके भविष्य को सीधा प्रभावित कर सकता है...

Wednesday, January 12, 2011

कभी विधासागर ने स्कूल से निकाल दिया था स्वामी जी को..

स्वामी विवेकानंद के जीवन से जुड़ी कई ऐसी बातें हैं, जिनका जिक्र बहुत कम हुआ है या कहें कि हुआ ही नहीं है. उनकी मां भुवनेश्वरी दासी के प्रति उनका अगाध लगाव और श्रद्धा, आजीवन उनके साथ रहा. संन्यासी रहते हुए भी मां के प्रति उनकी चिंता जगजाहिर है. लेकिन कम ही लोगों को मालूम है कि अपनी मां के लिए उन्होंने क्या-क्या किया.

यूं तो सभी को मालूम है कि विवेकानंद का असली नाम नरेंद्रनाथ दत्त था. लेकिन उनकी मां भुवनेश्वरी दासी उन्हें वीरेश्वर या बीलू कहती थीं. भुवनेश्वरी दासी अत्यंत सुंदर महिला थी. उन्हें तीक्ष्ण स्मरणशक्ति का आशीर्वाद प्राप्त था. लगता है यही आशीर्वाद उन्होंने विवेकानंद को भी दिया था. तभी तो मधुमेह व अन्य रोगों से जर्जर शरीर के साथ विवेकानंद के जीवन के अंतिम दिनों में भी उनकी स्मरणशक्ति ऐसी थी कि वह आमलोगों को चौंका देती थी. दत्त परिवार काफी संपन्न था. उनके पिता विश्वनाथ नीलामी के धंधे से जुड़े थे.
1880-84 में जब एक मध्यम वर्गीय बंगाली परिवार के लिए महीने के 15 रुपये पर्याप्त थे, तब भुवेनश्वरी दासी की गृहस्थी करीब हजार रुपये से चलती थी. नाश्ते में नरेंद्र (विवेकानंद) और उनके भाई महेंद्र दो-चार आने में खस्सी के 10-12 मुंड जुटा लेते थे. साथ ही करीब दो-ढाई सेर हरे मटर भी उबाल कर सालन पकाया जाता था.

महेंद्रनाथ ने लिखा है कि शाम को दोनों भाई स्कूल से लौट कर इस सालन के साथ
15-16 रोटियां हजम कर जाते. जीवन के अंतिम दौर में भी स्वामीजी को खाने-पीने का शौक रहा. तब वह कोलकाता के पास बेलूर मठ में रहा करते थे. कहते हैं कि स्वामीजी खुद तो खाते ही थे, स्वयं पका कर दूसरों को भी खिलाते थे. एक दिन उन्होंने कहा कि वह फ़ुलौड़ियां बनायेंगे. उन्होंने इसके लिए जरूरी सामग्रियों की मांग कीं. उन्हें तेल, कड़ाही, बेसन आदि दिये गये. स्वामीजी बिल्कुल फ़ुलौड़ीवाले की तरह बैठ गये. धोती घुटनों तक समेट ली और फ़ुलौड़ी छानते हुए बच्चे की तरह आवाज दे-देकर मानों ग्राहकों को बुलाने लगे -आओ लोगों, चले आओ, आ जाओ. कहते हैं कि स्वामीजी को खाने में मिर्ची सबसे प्रिय थी. बड़े मजे से वह तीखी मिर्च खाते थे. विदेशी दोस्तों को जब वह तीखी मिर्च से बने व्यंजन खिलाते, तो खानेवालों की हालत बिगड़ने लगती. 
खाना पकाते हुए स्वामीजी दर्शन और गीता के अध्याय का उद्धरण भी देते रहते थे. कहा जा सकता है कि स्वामीजी ने पश्चिम को वेदांत के साथ ही बिरयानी की भी सीख दी. उनकी मां कहा करती थी कि बचपन से ही नरेन में कई दोष थे. वह किसी बात पर अगर भड़क जाते
, तो उन्हें सही-गलत की सुध नहीं रह जाती. घर के सामान तोड़ कर उन्हें तहस-नहस कर देते. नरेंद्रनाथ ने विश्वविद्यालय की तीन परीक्षाएं दी थीं. एंट्रेंस, एफए और बीए. हालांकि नंबर मन मुताबिक नहीं आये थे.

जिस इंसान को अंगरेजी भाषण में विश्वविजय हासिल हो
, उसे बीए में अंगरेजी में दूसरी श्रेणी मिले, यह बात पचती नहीं. उन्हें एंट्रेंस में अंगरेजी में 47, द्वितीय भाषा में 76, इतिहास में 45, गणित में 38 यानी कुल 206 अंक मिले थे.  एफए की परीक्षा में उन्हें अंगरेजी में 46, द्वितीय भाषा में 36, इतिहास में 56, गणित में 40, तर्कशास्त्र में 17, मनोविज्ञान में 34 और कुल मिला कर 229 अंक मिले थे. बीए की परीक्षा में स्वामीजी को अंगरेजी में 56, द्वितीय भाषा में 43, गणित में 61, इतिहास में 56, दर्शन में 45 और कुल मिला कर 261 अंक मिले थे.

स्वामीजी की कुशाग्र बुद्धि से अवगत लोग उन्हें परीक्षा में मिले इन अंकों को देख कर तब की परीक्षा पद्धति पर सवाल भी उठाते हैं. स्वामीजी के पिता विश्वनाथ की मृत्यु के बाद उनकी पत्नी भुवनेश्वरी दासी और उनकी संतानों पर आपदा का पहाड़ टूट पड़ा. पारिवारिक मामले-मुकदमे शुरू हो गये. इस दौरान अदालती खर्च जुटाने के लिए विवेकानंद को दर-दर भटकना पड़ा. नौकरी की तलाश में विवेकानंद एक बार विद्यासागर द्वारा स्थापित मेट्रोपोलिटन इंस्टीटय़ूशन पहुंचे. स्कूल की कोलकाता स्थित सुकिया स्ट्रीट शाखा में नरेंद्रनाथ को हेडमास्टर की नौकरी मिली. स्कूल के सचिव विद्यासागर के दामाद थे. उन्होंने विवेकानंद के खिलाफ छात्रों को भड़का दिया. नौवीं और
10वीं के छात्रों ने संयुक्त रूप से आवेदन किया कि नये हेडमास्टर को पढ़ाना नहीं आता. फिर तो विद्यासागर ने उन्हें स्कूल नहीं आने के लिए ही कहलवा दिया. मजे की बात यह कि जिस विवेकानंद ने पूरी दुनिया को पढ़ाया, उन्हें ही कभी उक्त स्कूल से नकारा बता कर निकाल दिया गया था.

तथ्य बताते हैं कि संन्यासी बनने के बाद भी अपनी मां के लिए विवेकानंद सदैव चिंतित रहे. मां को पैसे भेजने के लिए उन्हें लोगों के आगे हाथ फ़ैलाना पड़ता था. जब स्वामीजी गंभीर रूप से बीमार थे
, तब वह लगातार अपने करीबी लोगों से आग्रह कर रहे थे कि उनकी मृत्यु के बाद उनकी मां का ख्याल रखा जाये. शुक्रवार चार जुलाई 1902 को बेलूर मठ में ही नाश्ते में उन्होंने गर्म दूध पिया. फल वगैरह खाये. दोपहर 11.30 बजे सबके साथ रसदार इलिश मछली व चटनी के साथ भात खाये.

दोपहर एक से चार बजे तक लाइब्रेरी में साधु ब्रह्मचारियों की क्लास ली. विषय था :  पाणिनी व्याकरण. शाम पांच बजे आम के पेड़ तले बेंच पर बैठ कर उन्होंने कहा कि आज जितना स्वस्थ एक लंबे अरसे में उन्होंने महसूस नहीं किया था. शाम सात बजे संध्या- बाती का घंटा बजने के बाद स्वामीजी अपने कमरे में चले गये. ब्रजेंद्र नामक युवक से दो लड़ी माला मांगी और उसे बाहर जाकर ध्यान करने को कहा. शाम
7.45 बजे गर्मी लगने पर खिड़की खोलने को कहा.

रात नौ बजे उनका दाहिना हाथ जरा कांप गया. उनके माथे पर पसीने की बूंदें थीं. रात
9.02 बजे से 9.10 बजे तक गहरी लंबी सांसें चली और फिर थोड़ी देर बाद ही उनका माथा लुढ़क गया. आंखें स्थिर, चेहरे पर अपूर्व ज्योति. इसके बाद डॉक्टर वगैरह ने तमाम कोशिशें की. रात 12 बजे डॉक्टर ने उनके देहांत की सूचना दी. 39 वर्ष पांच महीने और 24 दिन की आयु में उन्होंने इहलोक त्याग दिया. उनका अंतिम संस्कार उनकी इच्छा के अनुरूप बेलूर मठ परिसर में ही किया गया. हालांकि अगले दिन कोलकाता के किसी भी समाचारपत्र में उनके निधन की सूचना नहीं थी. दाह संस्कार अगले दिन शाम छह बजे संपन्न हुआ.

(मशहूर रचना चौरंगी के लेखक शंकर की विवेकानंद पर एक और पुस्तक अविश्वास्य विवेकानंद का हाल में प्रकाशन हुआ है.) बातचीत : आनंद कुमार सिंह

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