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किसी भी संस्थान के पूर्ववर्ती छात्रों की पेशेवर सफलता उस संस्थान से मिलने वाली उपाधि का मोल तय करती है। इसके अलावा दूसरी बातें भी हैं, लेकिन ये उपाधि का मोल तय करने में सबसे अहम यही है। लेकिन सिक्के का दूसरा पहलु ये है कि उपाधि का मोल पूर्ववर्ती और वर्तमान सभी छात्रों की सफलता का आधार तय करता है। समझने की कोशिश करिए। ...जोशारू, हमारे-आपके भविष्य को सीधा प्रभावित कर सकता है...

Wednesday, September 15, 2010

अनुच्छेद -१९ और मीडिया के सवाल l

आज एक अच्छी पहल देखने को मिली । प्रभात खबर ने अपने एडिटोरियल पेज की लेआउट बदल दी है । पहले दिन का पहला अग्रलेख ही मीडिया के बड़े सवाल का है । पुण्य प्रसून बाजपेयी ने सवाल उठाया है की "कैसे बताएं की मीडिया बिका हुआ है ?" , प्रभात खबर के इस पेज का नाम है अभिमत । इस अभिमत में कई कालम हैं । जीसमे 'प्रभात खबर दस्तावेज' और 'अपने फ़रमाया' प्रमुख है । इनसब से परे जो खास है वो है इसका 'लेटर टूएडिटर कालम' । प्रभात खबर ने अपने इस लोकतंत्रीय कालम का नाम रखा है - "अनुच्छेद - १९" ।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद -१९ अभियक्ति की स्वतंत्रता से जुड़ा है । मर्यादित स्वतंत्रता के साथ अपनी बात कहने की आजादी का अनुच्छेद । मीडिया भी इस अनुच्छेद से आजादी पातीहै । आज इस आजादी ने ही मीडिया को स्वछंद बना दीया है । बहुत सीधी सी बात है की आजादी और स्वतंत्रता में बहुत अंतर नहीं होता है । आजादी की मर्यादा से जरा आगे बढे नहीं की आजादी स्वछंदता में बदल जाती है । आजादी और स्व्चंद्ता में बस अंतर है तो नियत का । आजादी में जहाँ नियत का खोट आया तो वो स्वछंदता में बदल जाती है । अभिब्यक्ति में जहाँ स्वछंदता आई तो ठाकरे बनते देर नहीं लगती । कमोबेस यही हालत आज मीडिया की भी है मीडिया में यह कहना की अनुच्छेद १९ की स्तिथि ठीक ठाक है, तो वो शायद मुगालते में हो ।
मीडिया आज इसी भरम में है की वो किस खामोसी का आवाज बने और किस चुप्पी को शब्द दे । खुद मीडिया को भी अपने इस दायीत्तव तय करने में असमंजस बना हुआ है । दरअसल मीडिया आज एक शोर बनता जा रहा है , एक आनावश्यक शोर । इस शोर में सारी स्वतंत्रतायें टूट गयी है । बस वर्जनाओं का ढहाना बाकि रह गया है । आज जिस कर्तब्य पूर्ण अनुच्छेद १९ की मीडिया को जरुरत है वो बहुत कम दिखता है ।
फिर पुण्य प्रसून जी के सवाल पर की कैसे बताएं की मीडिया बिका हुआ है । आज इस सत्य को बताने की जरुरत ही नहीं । अब तो गाँव वाले भी जानने लगे हैं की मीडिया के लोग सच के साथ बलात्कार कैसे करते हैं । सामने घटना कुछ और है और मीडिया में कहानी कुछ और । कई बार तो पूरी की पूरी कहानी ही गायब हो जाती है । मीडिया में आज नियत का खोट भर गया है । यही कारन है की कलम से लेकर कागज तक , और शब्द से आवाज तक मीडिया में बिक रहा है । और अभिब्यक्ति बेचारी मीडिया के पैदा किये गए शोर में दबती जा रही है । स्वतंत्राएँ हाशिये में है , मर्यादाएं ताक पर , स्वछान्दतायें हावी है और मीडिया अपनी जमीं छोड़ हवा में है ।
बहरहाल पुण्य प्रसून जी जब नियत का खोट हो तो जवाब देना मुश्किल हो जाता है , और जो जवाब दीया जाता है उसमे भी शंदेह बना रहता है । ऐसे में कौन कहे की बिका हुआ कौन है । लेकिन परभात खबर को बधाई की पाठको कम से कम लोकतान्त्रिक तरीके से रखा है । और अभिब्यक्ति की स्वतंत्राएँ एक सही रह में बड़े । प्रभात खबर को नए आत्मा के साथ और आगे बढे । ये लेख फ़रवरी २०१० को लिखी गयी थी.

अभिषेक शास्त्री
नोट : लेखक (अभिषेक शास्त्री) ई टी वी न्यूज़ लोहरदगा के लिए सवांदाता हैं. ये इसी विभाग के छात्र रह चुके हैं.

लेखक का ब्लॉग : http://awaramedia.blogspot.com/
संपर्क: abhi.chhotu@gmail.com


मोबाइल नंबर :-919471181600
 

ये ..............., शब्दों को भी खाय जात हैं

कुछ दिनों पहले एक महिला संगठन ने जुलूस निकालकर अपना विरोध दर्ज कराया . उनकी मांग थी, कि फिल्म "पीपली लाइव" के उस गाने को हटा दिया जाये जिसमे डायन शब्द का इस्तेमाल किया गया है . बड़ी हैरत की बात है कि अपनी सक्रियता दिखाने और अपने संगठन को महिलाओं के अधिकार का सरमायादार जाहिर करने के लिए भाषा के विकास के एक खंड को ही वे "खाने "की कोशिश कर रहे हैं . डायन शब्द से उनको सिर्फ इसलिए चिढ है क्योंकि यह स्त्री बोधक है . कल को जाकर पुरुषवादी संगठन भूत प्रेत . पिशाच जैसे शब्दों पर भी ऐतराज करेंगे और पता चला कि हिंदी के कोष के हजारो शब्द लापता हो गए . और ये ऐसे शब्द हैं जो देशज और लोक शब्द होने की वजह से सीधे दिलो तक पहुचते हैं . पूरा प्रसंग पूरी कहानी या पूरा मतलब महज एक शब्द या एक लोकोक्ति पर निछावर होते हैं . अब उनके चलन को रोकने की मांग निहायत ही अलोकतांत्रिक, लोक भाषा विरोधी और बचकानापन है. कई शब्दों को पहले ही असंवैधानिक घोषित करके हिंदी को कमजोर करने की कोशिश की जा चुकी है . महंगाई डायन खाय जात है ...... गीत इसलिए लोकप्रिय हुआ क्योंकि यह लोकभाषा में गाया हुआ है .. इसने पूरे माहौल को शब्दों से प्रतिबिंबित किया है . लोगो की भावनाओ का सटीक अभिव्यक्ति है . इससे आसान क्या हो सकता है कि महंगाई को यह लोक गीत बड़े सरल भाषा में दिलो तक पंहुचा दे .
एक प्रकरण पढ़ा है कही .... ऋषि अष्टावक्र जनक के दरबार में गए . अष्टावक्र का शरीर आठ जगहों से टेढ़े हो गए थे . वह परम विद्वान थे . जनक के दरबार में विद्वानों ने उनकी चाल देखकर हँसना शुरू कर दिया . अष्टावक्र सभा से वापस लौटने लगे . जनक ने वापस लौटने का कारण पूछा तो अष्टावक्र ने कहा कि वो तो विद्वानों की सभा समझकर सभा में आये थे लेकिन यहाँ तो केवल चमार बैठे हैं जिनकी सोच और नजर महज चमड़े तक है . जनक ने माफ़ी मांगी . सन्दर्भ में इस प्रकरण की चर्चा इसलिए कि चमार शब्द को असंवैधानिक माना गया है . इसका इस्तेमाल बड़े हिसाब से करना होता है . लेकिन अष्टावक्र प्रकरण को देखे तो साफ़ जाहिर होगा एक शब्द का कितना व्यापक मतलब होता है . यह किसी जाति, समुदाय, वर्ग, लिंग या संसथान का मोहताज नहीं बल्कि अभिव्यक्ति का सरल माध्यम है . ऐसे हालत में किसी भी शब्द पर प्रतिबन्ध लगाना गलत है . हाँ नीयत और सन्दर्भ सही होना चाहिए .
हिन्दुस्तान में आम बोलचाल में "साला" शब्द का इस्तेमाल धड़ल्ले से होता है . . दोस्त दुश्मन की परिधि से बाहर इसका इस्तेमाल आम है . इसका शाब्दिक अर्थ .पत्नी का भाई .. होता है . इसको दूसरे नजरिये से देखे तो जिसे आप आम बोलचाल में साला कह रहे हैं उसकी बहन आपकी पत्नी हुई . अगर इसे लेकर ऐतराज और गुस्सा जाहिर किया जाने लगा तो हर मुहाले में चौबीसों घंटे फसाद होता रहे . लेकिन कई बार तो इस शब्द ( या गाली ) के बिना तो वाक्य का पूरा अर्थ ही लगाना मुश्किल हो जाता है . उसमे वह भाव नहीं आ पाता है जो वक्ता या लेखक कहना चाहता है .
हिंदी की भलाई चाहते हो तो ऐसे बचकाने सवाल खड़ा कर इस भाषा के अस्तित्व पर ही उंगली न उठाइए . कम लोगो को पता है . हिंदी की वर्तनी के एक एक अक्षर के कई कई मायने होते हैं . मसलन, क का मतलब ब्रह्मा ,कामदेव , काल , शब्द, जैसे कई अर्थ होते है , उसी तरह ख का मतलब आकाश ,हर्ष जैसे अनेक अभिप्राय होते हैं . हिंदी के अक्षर तक इतने संपन्न है तो शब्दों के क्या कहने ? यह स्थिति केवल व्यंजन वर्ण के शब्दों के लिए नहीं बल्कि स्वर वर्ण के शब्दों के लिए भी है . जाहिर है जो तत्सम और देशज शब्द हिंदी में प्रयोग हो रहे है उनके विकास का एक लम्बा काल रहा होगा . इतना ही नहीं शब्द के बनने के बाद उसके प्रचलन में आने और सर्वग्राह्य होने में भी वर्षो लगे होंगे .
इसीलिए शब्द गलत या बुरे नहीं होते, सन्दर्भ गलत हो सकता है, प्रयोग करने के तरीके गलत हो सकते हैं और विकसित हो रहे हिंदी के शब्दों पर प्रतिबन्ध लगाने की मांग एक सभ्यता और संस्कृति पर आघात है . जो नए शब्द आते हैं उसे हम हिंदी में स्वीकार करने को तैयार हैं तो बने बनाये शब्दों को कूड़ेदान में डालने की गलती हम क्यों कर रहे हैं.

योगेश किसलय
नोट : लेखक (योगेश किसलय ) इंडिया टीवी के झारखण्ड ब्यूरो प्रमुख है. और इसी विभाग के छात्र भी रह चुके हैं. 
संपर्क: yogeshkislaya@gmail.com

Friday, September 10, 2010

मीडिया-घटिया प्रोफेशनल्स भविष्य के लिए खतरनाक

टेलीविजन न्यूज हो या अखबार- सूचना, मनोरंजन और शिक्षम का ज़रिया हैं। ये बैलेंस शीट का एक कॉलम है। दूसरे कॉलम को देखिए तो ये प्रचार का माध्यम भी हैं। एक को आप कंटेंट कह सकते हैं और दूसरे को विज्ञापन। दोनों के बीच आनुपातिक तालमेल से ही मीडिया का कारोबार चलता है।
कंटेट दर्शक या पाठक जुटाता है और इन्हीं दर्शकों-पाठकों तक अपना संदेश पहुंचाने के लिए विज्ञापनदाता आपके पास आता है। जितना आप कंटेंट पर खर्च करते हैं उतना अगर विज्ञापन से हासिल कर लेते हैं तो आप के अस्तित्व को कोई खतरा नहीं है। अगर विज्ञापन से उतना नहीं जुटा पाते तो संकट है। सवाल उठता है कि विज्ञापन से अगर खर्च वहन नहीं हो रहा तो क्या किया जाए? बस इसी सवाल के जवाब में नॉन प्रोफेशनल लोग पेड न्यूज़ और दलाली का धंधा शुरू कर देते है। जबकि एक अच्छा प्रोफेशनल इस सवाल का जवाब भी तरीके से खोज सकता है।


सबसे पहले तो ये समझने की ज़रूरत है कि रोग कहां है।
क्या कंटेंट में इतना दम नहीं कि वो दर्शक जुटा पाए और इसीलिए विज्ञापनदाता कम आते हैं?
या विज्ञापन से जितना पैसा जुटाया जा सकता है उससे ज्यादा पैसा कंटेंट पर खर्च किया जा रहा है?
या सबकुछ ठीक है लेकिन दर्शकों और विज्ञापनदाताओं तक पहुंच बढ़ाने की ज़रूरत है?
ऐसी कई व्यावसायिक स्थितियां हो सकती हैं, जिन्हें ठीक रखने की सतत चुनौती का नाम ही प्रोफेशनलिज्म है। मीडिया हाउस में शीर्ष पर बैठे लोगों का अनुभव,उनकी दूरदर्शिता,उनका रणनीतिक कौशल इसी काम के लिए होता है। लेकिन ये इतना आसान नहीं है। ये वाकई बार-बार,लगातार परीक्षा देते रहने जैसा है। ठीक वैसे ही जैसे क्रिकेट में राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ियों के साथ होता है। पर्फार्मेंस व्यक्तिगत स्तर पर और सफलता टीम के स्तर पर। एक अच्छा खिलाड़ी कोशिश करता है कि हमेशा बेहतरीन प्रदर्शन करे और टीम भावना से खेले। इसके लिए उसे सतत अभ्यास में रहना पड़ता है, अध्ययन करना पड़ता है, फिट रहना पड़ता है.....

मीडिया में ऐसे खिलाड़ियों की कमी है। आज शीर्ष पर बड़ी संख्या में ऐसे लोग मौजूद हैं, जिन्होंने बाजारीकरण के दौर में पहले अपने लिए शॉर्टकट तलाश किए और अब अपने सेठों के लिए शॉर्टकट फार्मूले ढुंढ-ढुंढकर निकाल रहे हैं। सेठ भी ज्यादातर ऐसे हैं जिन्होंने शॉर्टकट में लम्बी छलांग लगाई है और सीधे रास्ते चलने का संयम खो चुके हैं। आज मीडिया में सबसे ज्यादा वैसे निवेशक रुचि दिखा रहे हैं जिन्हें व्यवस्था में सेंध लगानी है- जैसेकि बिल्डर्स। जबकि वैश्वीकरण के नए दौर से गुजर रहे इंडिया में न अच्छे युवा प्रोफेशनल्स की कमी है और ना ही दूरदृष्टि वाले निवेशकों की।

फिलहाल मीडिया में जो कुछ चल रहा है उससे निश्चित तौर पर भविष्य का बंटाधार होगा। आखिरकार नई व्यावयायिक सोच औऱ रणनीति को जगह मिलेगी, लेकिन कुचाल बुद्धि मठाधीश पूरा जोर लगाकर उनका रास्ता रोक रहे हैं। मीडिया पर विज्ञापनदाता इसलिए आता है कि उसे अपने उत्पाद के संबंधित संदेश आम लोगों तक पहुंचाना होता है। मीडिया की साख इसमें उसकी मदद करती है। विज्ञापनदाता उत्पाद के हिसाब से मीडिया का चयन करता है। लेकिन फिलहाल जो कुछ हो रहा है उससे मीडिया की साख तो तगड़ा झटका लग रहा है। इस झटके का शिकार हो रहे मीडिया हाउस इतिहास की गर्त में समा जाएंगे। वो या तो मिट जाएंगे या बड़े व्यावसायिक घरानों के हाथों बिकने को मजबूर हो जाएंगे। और इसी के साथ युवा मीडियाकर्मियों की एक पौध भी अर्धविकसित रह जाएगी।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हमारी राष्ट्रीयता की जान है,हमारे विकास की रीढ़ है। नई आर्थिक व्यवस्था में पूंजी का प्रवाह बढ़ा है। सैकड़ो की संख्या में छोटे निवेशक मीडिया का रुख कर रहे हैं। जाहिर है उन्हें अपने व्यावसायिक हित भी देखने हैं और मीडिया के कारोबार में भी घाटा नहीं उठाना है। लेकिन उन्हें इस व्यवसाय की समझ नहीं है और संयम का सर्वथा अभाव है। ऐसे में उन मीडियाकर्मियों की चांदी हो गई है जिनके पास दिखलाने के लिए अनुभव है, मिलवाने के लिए कुछ रसूखदार लोग हैं और समझाने के लिए शॉर्टकट फार्मूले हैं। भले अपने प्रोफेशन की बारीकियों से उनका परिचय ना हो, आम दर्शक-पाठक से जुड़ पाने लायक समझ ना हो और कर दिखाने की क्षमता ना हो।

नतीजा कारोबार शुरू करने से पहले कमाई की गारंटी दी जाती है, कारोबार शुरू होते ही ब्लैकमेलिंग, सौदेबाजी और सरकारी भीख का सिलसिला शुरू हो जाता है और उम्मीदों का दिया जलने के साथ ही बुझ भी जाता है। जबकि ऐसे छोटे-छोटे मीडिया हाउस इस देश की ज़रूरत हैं। ये बड़े घरानों को संतुलित करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते हैं। ये मीडिया के क्षेत्र में तैयार हो रहे बेहतरीन मानव संसाधन के लिए मंच हो सकते हैं।


मनोज श्रीवास्तव
नोट: लेखक टीवी पत्रकार हैं (मनोज श्रीवास्तव), इन्होने अपने जीवन के दो दशक से भी ज्यादा पत्रकारिता के नाम किया है. ये सहारा समय और न्यूज़ ११ में अपनी लोहा मनवा चुके हैं. और ये इसी विभाग के छात्र भी रह चुके हैं.
संपर्क:
पता       277, Seemant Vihar,kausambi
Ghaziabad, India 201010
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 लेखक के ब्लॉग: http://realmanoj.blogspot.com

पत्रकारिता का नया आयाम

पत्रकारिता कोई पेशा नहीं , ये तो एक प्रवृतिहै। इस लिहाज से देखें तो जनसंचार के नए साधन जैसे कि मोबाइल,इंटरनेट एक क्रांति की शुरूआत हैं। भारत में और खास कर हिन्दी पट्टी में मेनस्ट्रीम की पत्रकारिता पर इनका दबाव अब दिखने लगा है। हालांकि संगठित तौर पर इन माध्यमों को भी पेशेवर रूप देने की कोशिश जारी है,लेकिन नेटवर्किंग के ज़रिए इसको लगातार चुनौतियां मिलती रहेंगी। देश में लाखों की संख्या में मौजूद पत्रकार अपनी नौकरी को गुलामी एक नया रूप समझने लगे हैं और उनके विद्रोह का रास्ता अब खुल चुका है। इसके अलावा करोड़ो की संख्या में जो लोग संचार माध्यमों से जुड़ रहे हैं, वो कहीं ना कहीं तथ्यों को सामने लाने में छोटी-छोटी भूमिकाएं भी निभा रहे हैं। कई लोगों ने तो जैसे जेहाद छेड़ दिया है।
इसमें सबसे ज्यादा ध्यान देनेवाली बात ये है कि इंटरनेट या मोबाइल के जरिए संवाद स्थापित करने वाला व्यक्ति प्रभावोत्पादक (effective) है। वो बेहद निजी पलों में से समय निकालकर, वयक्तिक रूप से शामिल होता है और दूसरों को प्रभावित करने की कोशिश करता है। जाहिर है वो जो कुछ ग्रहण करता है उसपर भी गंभीरता से अमल करने की कोशिश करेगा। यानि यहां संवाददाता और संवाद ग्रहण करने वाला दोनों एक साथ एक ही व्यक्ति में मौजूद होते हैं। हालाकि सूचना देने की प्रवृति अभी उतनी प्रबल नहीं हुई है, लेकिन इसके बीज फूटने लगे हैं।
मुख्तसर ये कि माध्यम की विशिष्टता को छोड़ दें तो पत्रकारिता के मूल सरोकार पर नए मीडिया का गहरा असर पड़ने वाला है। अब ये कितनी जल्दी कितना असर दिखाएगा ये इस बात पर निर्भर करता है कि आधारभूत संरचना के विकास में कितना वक्त लगता है। निजी भागीदारी और प्रतियोगिता के दौर में इसमें भी उत्साहवर्धक नतीजों की उम्मीद की जा सकती है। तो क्या साल दो हजार बारह-तेरह तक?


मनोज श्रीवास्तव



नोट: लेखक टीवी पत्रकार हैं (मनोज श्रीवास्तव), इन्होने अपने जीवन के दो दशक से भी ज्यादा पत्रकारिता के नाम किया है. ये सहारा समय और न्यूज़ ११ में अपनी लोहा मनवा चुके हैं. और ये इसी विभाग के छात्र भी रह चुके हैं.
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पत्रकारिता विभाग

रांची युनिवेर्सिटी के पत्रकारिता विभाग का बड़ा ही पुराना इतिहास रहा है. यहाँ से तालीम हासिल कर कई छात्र आज देश और दुनिया में नयी क्रांति ला रहे हैं. ऐसा नहीं है की यहाँ से जितने भी छात्र पास हो चुके हैं वो पत्रकारिता में ही अपना लोहा मनवा रहे हैं बल्कि हर किसी क्षेत्र में अपनी पहचान दर्ज करा रहे हैं. शुन्य से शुरू हुआ इस विभाग का सफ़र आज काफी विस्तृत हो चूका है. आज सिर्फ झारखण्ड के ही नहीं बल्कि अन्य दुसरे प्रदेश के छात्र भी इस विभाग में विद्या अर्जन कर रहे हैं. पहले यहाँ सिर्फ बीजेएमसी का ही पठन-पाठन होता था लेकिन छात्रों की बढती रूचि को देखते हुए आज यहाँ एम्जेएम्सी की भी पढाई शुरू हो चुकी है.