कंटेट दर्शक या पाठक जुटाता है और इन्हीं दर्शकों-पाठकों तक अपना संदेश पहुंचाने के लिए विज्ञापनदाता आपके पास आता है। जितना आप कंटेंट पर खर्च करते हैं उतना अगर विज्ञापन से हासिल कर लेते हैं तो आप के अस्तित्व को कोई खतरा नहीं है। अगर विज्ञापन से उतना नहीं जुटा पाते तो संकट है। सवाल उठता है कि विज्ञापन से अगर खर्च वहन नहीं हो रहा तो क्या किया जाए? बस इसी सवाल के जवाब में नॉन प्रोफेशनल लोग पेड न्यूज़ और दलाली का धंधा शुरू कर देते है। जबकि एक अच्छा प्रोफेशनल इस सवाल का जवाब भी तरीके से खोज सकता है।
सबसे पहले तो ये समझने की ज़रूरत है कि रोग कहां है।
क्या कंटेंट में इतना दम नहीं कि वो दर्शक जुटा पाए और इसीलिए विज्ञापनदाता कम आते हैं?
या विज्ञापन से जितना पैसा जुटाया जा सकता है उससे ज्यादा पैसा कंटेंट पर खर्च किया जा रहा है?
या सबकुछ ठीक है लेकिन दर्शकों और विज्ञापनदाताओं तक पहुंच बढ़ाने की ज़रूरत है?
ऐसी कई व्यावसायिक स्थितियां हो सकती हैं, जिन्हें ठीक रखने की सतत चुनौती का नाम ही प्रोफेशनलिज्म है। मीडिया हाउस में शीर्ष पर बैठे लोगों का अनुभव,उनकी दूरदर्शिता,उनका रणनीतिक कौशल इसी काम के लिए होता है। लेकिन ये इतना आसान नहीं है। ये वाकई बार-बार,लगातार परीक्षा देते रहने जैसा है। ठीक वैसे ही जैसे क्रिकेट में राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ियों के साथ होता है। पर्फार्मेंस व्यक्तिगत स्तर पर और सफलता टीम के स्तर पर। एक अच्छा खिलाड़ी कोशिश करता है कि हमेशा बेहतरीन प्रदर्शन करे और टीम भावना से खेले। इसके लिए उसे सतत अभ्यास में रहना पड़ता है, अध्ययन करना पड़ता है, फिट रहना पड़ता है.....
मीडिया में ऐसे खिलाड़ियों की कमी है। आज शीर्ष पर बड़ी संख्या में ऐसे लोग मौजूद हैं, जिन्होंने बाजारीकरण के दौर में पहले अपने लिए शॉर्टकट तलाश किए और अब अपने सेठों के लिए शॉर्टकट फार्मूले ढुंढ-ढुंढकर निकाल रहे हैं। सेठ भी ज्यादातर ऐसे हैं जिन्होंने शॉर्टकट में लम्बी छलांग लगाई है और सीधे रास्ते चलने का संयम खो चुके हैं। आज मीडिया में सबसे ज्यादा वैसे निवेशक रुचि दिखा रहे हैं जिन्हें व्यवस्था में सेंध लगानी है- जैसेकि बिल्डर्स। जबकि वैश्वीकरण के नए दौर से गुजर रहे इंडिया में न अच्छे युवा प्रोफेशनल्स की कमी है और ना ही दूरदृष्टि वाले निवेशकों की।
फिलहाल मीडिया में जो कुछ चल रहा है उससे निश्चित तौर पर भविष्य का बंटाधार होगा। आखिरकार नई व्यावयायिक सोच औऱ रणनीति को जगह मिलेगी, लेकिन कुचाल बुद्धि मठाधीश पूरा जोर लगाकर उनका रास्ता रोक रहे हैं। मीडिया पर विज्ञापनदाता इसलिए आता है कि उसे अपने उत्पाद के संबंधित संदेश आम लोगों तक पहुंचाना होता है। मीडिया की साख इसमें उसकी मदद करती है। विज्ञापनदाता उत्पाद के हिसाब से मीडिया का चयन करता है। लेकिन फिलहाल जो कुछ हो रहा है उससे मीडिया की साख तो तगड़ा झटका लग रहा है। इस झटके का शिकार हो रहे मीडिया हाउस इतिहास की गर्त में समा जाएंगे। वो या तो मिट जाएंगे या बड़े व्यावसायिक घरानों के हाथों बिकने को मजबूर हो जाएंगे। और इसी के साथ युवा मीडियाकर्मियों की एक पौध भी अर्धविकसित रह जाएगी।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हमारी राष्ट्रीयता की जान है,हमारे विकास की रीढ़ है। नई आर्थिक व्यवस्था में पूंजी का प्रवाह बढ़ा है। सैकड़ो की संख्या में छोटे निवेशक मीडिया का रुख कर रहे हैं। जाहिर है उन्हें अपने व्यावसायिक हित भी देखने हैं और मीडिया के कारोबार में भी घाटा नहीं उठाना है। लेकिन उन्हें इस व्यवसाय की समझ नहीं है और संयम का सर्वथा अभाव है। ऐसे में उन मीडियाकर्मियों की चांदी हो गई है जिनके पास दिखलाने के लिए अनुभव है, मिलवाने के लिए कुछ रसूखदार लोग हैं और समझाने के लिए शॉर्टकट फार्मूले हैं। भले अपने प्रोफेशन की बारीकियों से उनका परिचय ना हो, आम दर्शक-पाठक से जुड़ पाने लायक समझ ना हो और कर दिखाने की क्षमता ना हो।
नतीजा कारोबार शुरू करने से पहले कमाई की गारंटी दी जाती है, कारोबार शुरू होते ही ब्लैकमेलिंग, सौदेबाजी और सरकारी भीख का सिलसिला शुरू हो जाता है और उम्मीदों का दिया जलने के साथ ही बुझ भी जाता है। जबकि ऐसे छोटे-छोटे मीडिया हाउस इस देश की ज़रूरत हैं। ये बड़े घरानों को संतुलित करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते हैं। ये मीडिया के क्षेत्र में तैयार हो रहे बेहतरीन मानव संसाधन के लिए मंच हो सकते हैं।
मनोज श्रीवास्तव |
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