पिछले कुछ दो दशकों में तकनीक-संचार के  साधनों की तीव्रता ने दुनिया के मीडिया का चेहरा-मोहरा बहुत बदल दिया है।  मीडिया में पेशेवर अंदाज़  व आकर्षक प्रस्तुति की माँग प्राथमिक हो गई है।  यह अब शब्दों की बेचारी दुनिया नहीं रही, यहाँ शब्द पीछे हैं, उसके साथ  जुड़ा है, एक बेहद चमकीला अर्थतंत्र। मीडिया का यही वैभव आज हमें चकाचौंध  में भी डालता है और उसके रचनात्मक इस्तेमाल के लिए एक अलग तरह की चुनौती भी  उपस्थित करता है। मीडिया का यह नया चेहरा कैसे और कितना सामाजिक  उत्तरदायित्व से लैस हो, ये बहसें भी आज काफ़ी तेज़ हैं, लेकिन बहस उस बात  पर नहीं होती, जहाँ से इस मीडिया को नियंत्रित किया जा सकता है। शायद हमें  अपने मीडिया को उसकी जड़ों, संस्कारों और मिशनरी भावनाओं से प्रेरित करने के  लिए जनसंचार शिक्षा पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है। यदि मीडिया में आ रहे  युवाओं को जड़ों से ही कुछ ऐसे विचार मिलें, जो उन्हें व्यावसायिकता के  साथ-साथ संस्कारों की भी दीक्षा दें, तो शायद हम अपने मीडिया में मानवीय  मूल्यों को ज़्यादा स्थान दे पाएँगे। यह चुनौती दुष्कर नहीं पर कठिन अवश्य  है क्योंकि हमारी आज की जनसंचार शिक्षा की बदहाली किसी से छिपी भी नहीं है।  हमें यह देखना होगा कि हमारे मीडिया की तरह इसकी शिक्षा के हालात भी  बदहवासी के शिकार क्यों हैं ?
हर वर्ष नए शिक्षा सत्र की दस्तक होते  ही अख़बार और प्रचार माध्यम पढ़ाई के विविध अनुशासनों के विज्ञापनों से भर  जाते हैं। तेज़ी से बदलती दुनिया, नए विषयों के उदय के बीच जनसंचार के  विविध क्षेत्रों की डिग्रियाँ लेकर भी तमाम संस्थान बाज़ार में हाज़िर है।  डिप्लोमा और डिग्रियों के सरकारी संस्थानों के अलावा सैकड़ों प्राइवेट  संस्थान भी सामने आए हैं। साथ ही साथ विभिन्न समाचार पत्र समूहों तथा  समाचार चैनलों ने भी जनसंचार शिक्षण के लिए संस्थान खोले हैं। मीडिया की  दिनों-दिन चमकीली होती दुनिया के प्रति युवक-युवतियों का आकर्षण स्वाभाविक  है। टीवी पर दिखने का आकर्षण इस जोश को उफान में बदल रहा है। शायद इसलिए  मेट्रो के कुछ अख़बारों में ऐसे भी विज्ञापन छपने लगे हैं-'एक हफ़्ते में  न्यूज एंकर'। ज़ाहिर है पत्रकारिता शिक्षा के ये परचूनिए भी सफल हैं और  उन्हें भी कुछ युवा मिल ही जाते हैं। हाल के वर्षों में सामाजिक जीवन में  जिस तरह के तेज़ परिवर्तन देखे गए, उससे यह सदी आक्रांत है। नई तकनीक और  संचार के साधनों ने जिस तरह हमारे समय को प्रभावित किया है वह अद्भुत है।  हमारे आचार, विचार, व्यवहार सबमें ये चीज़ें देखी जा सकती है। इसे प्रभावित  करने में सबसे सशक्त माध्यम के रूप में उभरा है, मीडिया। अख़बार, टीवी  चैनल्स, विज्ञान, इंटरनेट, फ़िल्मों, विपणन रणनीतियों और जनसंपर्क की नई  प्रविधियों के समुच्चय से जो दुनिया बनती है वह बेहद सपनीली है। जहाँ पॉवर  है, पैसा है, सौंदर्य है, सारा कुछ फ़ीलगुड।
जनसंचार का यह व्यापक  होता फलक अब समाज को सर्वाधिक प्रभावित करने की मुद्रा में है। जनसंचार के  किसी भी माध्यम के साथ जुड़ी पूंजी ने इसे बहुत व्यवहारिक बना दिया है। शायद  इसीलिए यह क्षेत्र भारी संख्या में प्रशिक्षितजनों की माँग और इंतजार में  खड़ा है। फ़ैशन वर्ल्ड से लेकर इवेंट मैनेजमेंट के रोज़ खुलते क्षितिज उन  पेशेवरों के इंतजार में हैं जो व्यवसाय में लगी पूंजी को एक बड़े उद्यम में  बदल सकें। इसके साथ ही देश के विकास तथा समाज के सभी हिस्सों तक मीडिया के  पहुँच की बात की जाती है। रेडियो के नए परिवेश में वापसी ने श्रव्य माध्यम  के लिए भी लोगों की माँग पैदा की है। ज़ाहिर है इस तेज़ी से विस्तार लेते  क्षेत्र के लिए प्रशिक्षण की अनिवार्यता बढ़ गई है। मीडिया के बढ़ते महत्व ने  जनसंचार की शिक्षा के महत्व को स्वत: बढ़ा दिया है। ऐसे में छोटे-छोटे  शहरों, क़स्बों में खुल रहे जनसंचार शिक्षा के संस्थानों की भीड़ को देखा जा  सकता है। मुक्त विश्वविद्यालयों तथा कई अन्य विश्वविद्यालयों ने जनसंचार  और पत्रकारिता  के पत्राचार पाठयक्रमों की शुरूआत कर अपनी आर्थिक स्थिति तो  सुधार ली लेकिन वहाँ से निकलने वाले डिग्रीधारियों की स्थिति समझी जा सकती  है। मीडिया शिक्षा के क्षेत्र में आज की सबसे बड़ी आवश्यकता इसका मौलिक  माडल खड़ा करने की है। मीडिया शिक्षा ने भारत में अपनी लंबी यात्रा के  बावजूद भारतीय मूल्यों और परंपराओं के आधार पर कोई अपना आधार विकसित नहीं  किया है। उसकी निर्भरता बहुत कुछ पश्चिमी ढाँचे पर बनी हुई शिक्षा व्यवस्था  पर है। शायद इसीलिए जनसंचार शिक्षा के संस्थानों से निकल रहे छात्र बड़ी  अधकचरी समझ लेकर निकल रहे हैं। उन्हें न तो देश का इतिहास पता है, न भूगोल।  संस्कृति और लोकाचार तो बहुत दूर की बात है। इसके चलते पूरी की पूरी  पत्रकारिता राजनीति के आक्रांतकारी प्रभाव से मुक्त नहीं हो पाती। खबरों के  शिल्प के अलावा कुछ कंप्यूटर और की-बोर्ड की जानकारी के सिवा ये संस्थान  क्या दे पा रहे हैं, समझ पाना मुश्किल है।
एक समय था, जब समाज में  तपकर, संघर्ष कर पत्रकार सामने आते थे, वे जीवन की पाठशाला में ही इतना कुछ  सीख लेते थे कि उनके अनुभव से निकला हुआ सच पत्रकारिता की मिसाल बन जाया  करता था। उन दिनों में बहुत ज़्यादा स्थानों पर पत्रकारिता के  शिक्षण-प्रशिक्षण के केंद्र नहीं थे। पत्रकारिता अपने लिए नायकों की स्वयं  तलाश कर रही थी। देश की स्थितियाँ भी पत्रकारिता के लिए ख़ासी अनुकूल थीं।  उसके चलते तमाम क्षेत्रों में काम कर रहे दिग्गज लोग पत्रकारिता के क्षेत्र  में आए। उन्होंने अपने-अपने तरीक़े से पत्रकारिता को सामाजिक परिवर्तन और  जंग-ए-आज़ादी की लड़ाई के लिए उपयोग किया। वे दिन वास्तव में भारतीय  पत्रकारिता के लिए आदर्श की तरह हैं। आज़ादी के बाद विभिन्न  विश्वविद्यालयों में जनसंचार और पत्रकारिता के शिक्षण-प्रशिक्षण का कार्य  प्रारंभ हुआ किंतु हम भारतीय पत्रकारिता का कोई माडल नहीं गढ़ पाए। शिक्षा  विभागों की तरफ़ से भी मीडिया शिक्षा की घोर उपेक्षा हुई। कई  विश्वविद्यालयों के तमाम विभागों में अध्यापकों का टोटा तो है ही, दृष्टि  का भी घोर अभाव है। अलग-अलग तरह के पाठयक्रम और उनके अलग-अलग मूल्य भी एक  बड़े संकट के रूप में सामने खड़े थे। ये दृश्य दुखी भी करता था और आहत भी।  लेकिन जिस देश में उच्च शिक्षा को व्यापारियों के हवाले छोड़ दिया गया है,  उस देश में ऐसे दृश्य बहुत स्वाभाविक हैं।
पत्रकारिता को एक ऐसा कर्म  मान लिया गया, जिसे कोई भी कर सकता है। ज़ाहिर है उसे पढ़ाने के लिए भी हर  कोई तैयार था। ऐसे मीडिया गुरू, मीडिया शिक्षा के मैदान में कूद पड़े, जो  स्वयं मीडिया के क्षेत्र में पिटे हुए मोहरे थे। इससे प्रोफ़ेशनलिज्म ने  पहले दिन से ही मीडिया शिक्षा से हाथ जोड़ लिए। जो पीढ़ी तैयार हो रही है, वह  अपने गुरू से आगे कैसे जा सकती है? इन घटनाओं के बीच में भी कुछ छात्र  'गुड़ के चेले शक्कर' बन गए हों, या 'घिस-घिसकर शालिग्राम', तो इसे अपवाद के  रूप में ही लिया जाए। कई ऐसे कालेज भी नज़रों के सामने हैं, जो पत्रकारिता  की डिग्री बाँटने का उपक्रम पिछले कई दशकों से कर रहे हैं, किंतु वहाँ  पत्रकारिता के किसी भी नियमित प्राध्यापक की नियुक्ति कभी नहीं रही। जादू  यह कि ये कालेज भी सरकार के द्वारा चलाए जाते हैं। जहाँ सरकारी कालेजों का  यह हाल हो, तो प्राइवेट संस्थाओं से ज़्यादा उम्मीद करना बेमानी है। बेहतर  होगा सरकार अपने इन कालेजों में इस तरह के पाठयक्रमों पर ताला लगा दे, तो  शायद पत्रकारिता का तो भला होगा ही, डिग्रियों का अवमूल्यन भी रूकेगा। ये  संस्थाएं सस्ते मीडियाकर्मी भले पैदा कर लें, अच्छे पत्रकार नहीं पैदा कर  सकतीं। 'पढ़े फारसी बेचे तेल’ की तर्ज़ पर इन महाविद्यालयों में किसी भी  विषय का प्राध्यापक पत्रकारिता के छात्रों को पढ़ाने लग जाता है। व्यवहारिक  प्रयोगों की तो जाने दीजिए, हालात यह हैं कि जमाने से 'आदमी कुत्ते को काटे  तो समाचार है’ यही परिभाषा छात्रों को पढ़ाई और रटाई जा रही है।
आज  मीडिया जिस प्रकार के अत्याधुनिक प्रयोगों से लैस है और आज के मीडिया  कर्मियों से जिस प्रकार की तैयारी तथा क्षमताओं की अपेक्षा की जा रही है।  क्या ये संस्थान ऐसे मानव संसाधन का निर्माण कर सकते हैं? किताबी बातों से  अलग ये विशेषीकृत पाठयक्रमों के आधार पर आज के व्यापक हो रहे मीडिया संसार  की चुनौतियों के मद्देनज़र तैयार हैं? ऐसे तमाम प्रश्नों के उत्तर हमें  नकारात्मक ही मिलेंगे। जनसंचार शिक्षा, सिर्फ़ पत्रकारिता तक सीमित नहीं  है, उसने जनसंपर्क से आगे बढ़कर कार्पोरेट कम्यूनिकेशन की ऊँचाई हासिल की  है। विज्ञापन के क्षेत्र में अलग-अलग तरह के विशेषज्ञों की माँग हो रही है।  प्रिंट मीडिया के साथ-साथ इलेक्ट्रानिक, रेडियो, मनोरंजन, वेब के तमाम  संसाधनों पर लोगों की माँग हो रही है। इलेक्ट्रानिक मीडिया के विस्तार ने  आज मीडिया प्रोफेशनल्स की चुनौतियाँ बहुत बढ़ा दी हैं। जनसंचार की शिक्षा  देने वाले संस्थान अपने आपको इन चुनौतियों के मद्देनज़र तैयार करें, यह एक  बडी ज़िम्मेदारी की बात है। शोध और अनुसंधान के प्रति हिंदी क्षेत्र की  उदासीनता के किस्से मशहूर हैं। जनसंचार शिक्षा के क्षेत्र में आगे आए तमाम  पत्र संस्थान एवं मीडिया समूह शायद इसीलिए इस क्षेत्र में आए क्योंकि वे  परंपरागत संस्थानों व विश्वविद्यालयों की सीमाएं जान चुके थे। अपनी संस्था  के लिए सही पेशेवरों को तैयार करने की चुनौती मीडिया समूहों के सामने थी।  टाइम्स ऑफ़ इंडिया, प्रभात खबर, दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, द हिन्दू,  आजतक, पायनियर जैसे समूहों के मीडिया प्रशिक्षण संस्थान इसी पीड़ा की उपज  है। यह उन परंपरागत संस्थानों को चुनौती भी हैं जो खुद को मीडिया शिक्षा का  रहबर समझते हैं। मीडिया शिक्षा के क्षेत्र में उच्चस्तरीय मानव संसाधन की  उपलब्धता ज़रूरी है, क्योंकि यह सर्वाधिक रोज़गार सृजन करने वाला क्षेत्र  साबित होने जा रहा है। चौथे स्तंभ की सैध्दांतिक भूमिका से परे भी मीडिया  का आकार और क्षेत्र बहुत बड़ा है। एक-एक शिक्षकों के सहारे चल रहे  विश्वविद्यालयों के जनसंचार एवं पत्रकारिता विभाग नए समय की चुनौतियों का  मुकाबला करने वाली पीढी तैयार कर पाएँगे, इसमें संदेह है। मीडिया संस्थानों  तथा मीडिया शिक्षा के परिसरों का संवाद बहाल होना भी ज़रूरी है। यह  आवाजाही बढ़ेग़ी तो यह शिक्षा क्षेत्र उपयोगी बनेगा।
लेखक: 
संजय द्विवेदी
रीडर, जनसंचार विभाग,माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय,
प्रेस कॉम्पलेक्स, महाराणा प्रताप नगर,
भोपाल, मध्यप्रदेश - 462001.
123dwivedi@gmail.com

 
अच्छा है
ReplyDeleteशुक्रिया।
ReplyDeleteअच्छा है|
ReplyDeleteइस नए सुंदर से चिट्ठे के साथ हिंदी ब्लॉग जगत में आपका स्वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!
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