About Me

My photo
किसी भी संस्थान के पूर्ववर्ती छात्रों की पेशेवर सफलता उस संस्थान से मिलने वाली उपाधि का मोल तय करती है। इसके अलावा दूसरी बातें भी हैं, लेकिन ये उपाधि का मोल तय करने में सबसे अहम यही है। लेकिन सिक्के का दूसरा पहलु ये है कि उपाधि का मोल पूर्ववर्ती और वर्तमान सभी छात्रों की सफलता का आधार तय करता है। समझने की कोशिश करिए। ...जोशारू, हमारे-आपके भविष्य को सीधा प्रभावित कर सकता है...

Friday, January 28, 2011

विज्ञापनों में गुम होते अखबार

बचपन में बहस होती। सवाल होता, कौन सा अखबार था जिसने गांधी जी के मरने की खबर पहले पन्ने पर नहीं छापी थी। ऐसी बातचीत इसलिए होती क्योंकि ‘पहला पन्ना मुख्य व बड़ी खबरों का होता है’, यह मान्यता बन गई थी। विज्ञापन वगहरा के लिए पुरा अखबार हो सकता है। यह अन्तर तो सभी मानते हैं कि अखबार पढ़े जाते हैं, वहीं विज्ञापन देखें जाते हैं।
आज ठीक विपरीत देखने में आता है। लगभग सारे अखबारों में पहले पन्ने पर विज्ञापन छपते हैं। पूरे पहले पेज के विज्ञापन कुछ समय पहले ही शुरू हुए हैं। इस विज्ञापन दौड़ में कोई अखबार पीछे न छूट जाए इसलिए सभी इस व्यवस्थित सामाजिक भेड़चाल का हिस्सा बने हैं। विज्ञापन भी खबरों को खास अहमियत देने वाले अखबार में ही छपते हैं। आखिर विज्ञापन भी अखबारों के उन्हीं पाठकों के देखने के लिए दिए जाते हैं। लेकिन पाठकों को अखबार पढ़ना पसंद है या देखना? आज के मीडिया मालिकों और पत्रकारों को क्या इसकी जरूरत महसूस होती है या नहीं? क्या अखबारों का पाठकों के प्रति उत्तरदायित्व खत्म तो नहीं हो गया है? पाठक यह जानता है कि विज्ञापनदाता अखबार नहीं चलाते हैं। अखबार तो पत्रकार ही चलाते हैं।

विज्ञापन की बात करते हुए, खबरों की खरीद-फरोख्त का पैमाना भी हाल में खबर बना है। जब खबरों की जगह को विज्ञापन खरीद सकते हैं तो विज्ञापन ही खबर क्यों नहीं बन सकता है? फिर अगर ऐसा ही चल निकला है तो अखबारों को विज्ञापन पत्रिका बनने से कैसे और कौन रोक पाएगा। खबरें विज्ञापन की तरह भी बिक सकती हैं। विज्ञापित खबरों की जरूरत सबसे ज्यादा चुनावों के समय होती है। उम्मीदवारों को जिन खबरों से फायदा मिले ऐसी खबर चुनाव के समय छापी जाती हैं। अखबार मानने लगे हैं कि जब विज्ञापन की रकम से अखबार चलते हैं तो विज्ञापन खबरों से ही अखबार क्यों नहीं चलाए जा सकते हैं। जब सभी कुछ खरीदा या बेचा जा सकता है तो खबरें क्यों नहीं? पाठक की सहनशक्ति को रजामंदी मान लिया जाता है। पत्रकारिय नैतिकता समाज से अलग कैसे चल सकती है। खुले खेल में सीमाएं कौन तय करेगा। लक्ष्मण रेखांए तो दूसरों के लिए खींची जाती हैं। खुद के लिए कौन आचार संहिता बनाता है। सामने और दूसरों पर उंगली उठाने वाला अपनी ओर वाली बंद मुठ्ठी क्यों और किसके भय से खोले? अंधेर नगरी में खाजा और भाजी के दाम कौन तय करेगा? गिरते समाजिक मुल्यों में कौन गिरने से बच सकता है?

जरूरत और लालसा की सीमाएं बाजार को तय करने देना उसी लक्ष्मण रेखा की तरह है, जो दूसरों के लिए खींची जाती है। उद्योग घरानों द्वारा चहेते मंत्री बनाने के लिए पत्रकारों के अहम का इस्तेमाल किया जाता रहा है। पत्रकार को पाठक का हित ही महत्वपूर्ण होना चाहिए। अपनी सीमाएं अपन खूद तय करते हैं या तोड़ते हैं। पत्रकारों को आए दिन ऐसे कई लुभावने मौके मिलते होंगे पर सभी तो फिसल नहीं जाते हैं। पाठक की आस्था से गिरना अपने पेट पर लात मारने जैसा है। लेकिन ज्यादा निराश होने की जरूरत नहीं है। गिरने के बाद उठना और उठने के बाद गिरना लगातार चलता रहता है। हतोत्साहित समाज में न तो गिरना ठीक होता है ना उठना सही।

जहां तक टेलीविजन का सवाल है तो वह देखा या सुना ही जाता है। यह सही है कि खबर और उससे जुडे़ विचार के माध्यम सभी हैं देखना, सुनना और पढ़ना। इनमें वैचारिक समानता तो हो सकती है लेकिन वस्तूगत समानता कैसे बनाई जा सकती है? देखने वाले टेलीविजन में विज्ञापन कौन पढे़गा? और पढे़ जाने वाले अखबारों में विज्ञापन कौन देखना चाहेगा। लेकिन मिलावट के जमाने में नए मिलावटी आयाम खोजे जाते हैं। कई अखबार तो रोज ही पहले पन्ने पर विज्ञापन देने लगे हैं।

लेकिन बढ़ते विज्ञापन खराब नहीं हैं। ज्यादा जरूरी है उनका सही इस्तमाल और वस्तूगत उपयोग। आवष्यक है कि विज्ञापनों का माध्यम निर्धारित किया जाए। टेलीविजन पर विज्ञापन दिखाए जाएं। अखबार में पढ़ने वाले विज्ञापन ही हों, वैसे ही रेडियो में सुने जाने वाले विज्ञापन हों। लेकिन इन तीनों खबर माध्यमों को चलाने वालों का उत्तरदायित्व देखनेवालों, पढ़नेवालों और सुनने वालों के प्रति होना चाहिए। विज्ञापनदाताओं को भी असल में देखने, पढ़ने और सुनने वालों तक ही पहुंचना होता है। यह खबर माध्यम जिन विज्ञापनों को दर्शाते हैं उन वस्तुओं को वही लोग खरीदते हैं जो इन माध्यमों के उपभोक्ता है। यानी उपभोक्ताओं को विज्ञापनदाता और खबर माध्यम लंबे समय तक छल नहीं सकते हैं। माध्यम ही मकसद को सही करते हैं। 

शुरूआत और बचपन में पूछे गए सवाल और उस अखबार का नाम आप सभी जानते हैं। पंजाब केसरी में पहला पन्ना मनोरंजन का होता था। अभी भी है। लेकिन लगातार पूरा पहला पन्ना विज्ञापन हो तो पाठक क्या सोचता है यह पता लगाना जरूरी है। यह भी पता लगाना चाहिए कि पाठक को अखबार में विज्ञापन चाहिए कि विज्ञापनों में अखबार। और मीडिया मालिकों को तय करना होगा कि उनका व्यवसाय विज्ञापन प्रचार है या कि खबर माध्यम चलाना। पत्रकारों को तय करना होगा की उनका पेट विज्ञापन पालते हैं या पाठक द्वारा सराही गई खबरें? भेद आत्मीय और मानवीय दोनो है। सभी को अपनी लक्ष्मण रेखा खुद खींचनी होगी।
लेखक:  संदीप जोशी (प्रभाष जोशी के ज्येष्ठ पुत्र संदीप जोशी का पहला प्यार तो वैसे क्रिकेट है लेकिन लिखने में भी महारत. एक सरकारी कार्यालय में नौकरी के साथ ही पिता द्वारा शुरू किये गये अखबार में नियमित लेखन भी.) 

No comments:

Post a Comment