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किसी भी संस्थान के पूर्ववर्ती छात्रों की पेशेवर सफलता उस संस्थान से मिलने वाली उपाधि का मोल तय करती है। इसके अलावा दूसरी बातें भी हैं, लेकिन ये उपाधि का मोल तय करने में सबसे अहम यही है। लेकिन सिक्के का दूसरा पहलु ये है कि उपाधि का मोल पूर्ववर्ती और वर्तमान सभी छात्रों की सफलता का आधार तय करता है। समझने की कोशिश करिए। ...जोशारू, हमारे-आपके भविष्य को सीधा प्रभावित कर सकता है...

Tuesday, June 28, 2011

मीडिया में प्रच्छन्न सवर्ण जातिवादी वर्चस्व है : एसपी सिंह

एक पुराना इंटरव्यू : 27 जून को महान पत्रकार एसपी सिंह की 14वीं पुण्यतिथि है. कुछ ही दिनों में 27 जून आ जाएगा. एसपी की याद में हम यहां उनसे लिया गया आखिरी इंटरव्यू प्रकाशित कर रहे हैं. यह इंटरव्यू अजीत राय ने लिया. इसका प्रकाशन 15 जून 1997 को जनसत्ता में हुआ था.
इस इंटरव्यू में एक सवाल के जवाब में एसपी सिंह ने टीवी के बारे में कहा है कि यहां लफ्फाजी और छल की गुंजाइश नहीं. आलस्य व मिथ्या पत्रकारिता यहां नहीं चल सकती जैसा कि कुछ लोग अनजान सूत्रों के हवाले से कुछ भी लिखते रहे हैं... एसपी के इस कथन को टीवी ने झुठला दिया है और दिखा दिया है कि टीवी में भी लफ्फाजी और छल की गुंजाइश है. यहां भी आलस्य व मिथ्या पत्रकारिता धड़ल्ले से चल रही है. लोग अनजान सूत्रों की जगह यूट्यूब के हवाले से कुछ भी दिखा दे रहे हैं. पर एसपी का कथन उस दौर के लिए जरूर प्रासंगिक था जब टीवी न्यूज की शुरुआत हुई और उस शुरुआती दौर में आदर्श व सरोकार पूरी तरह टीवी पर तारी था. एसपी के चेलों ने एसपी के गुजरने के बाद आदर्श व सरोकार के झीने आवरण को फाड़ डाला और शुरू कर दिया नंगा ब्रेक डांस. एसपी को याद करने के बहाने अगर टीवी न्यूज पर एक सार्थक बहस की शुरुआत हो सके तो हम सभी के सेहत के लिए फलदायी होगा. -यशवंत, एडिटर, भड़ास4मीडिया

  • आप प्रिंट मीडिया से इलेक्ट्राँनिक मीडिया में आ गए हैं। अपनी उपस्थिति में कैसा अंतर पाते हैं?
किसी माध्यम या संस्थान में निजी उपस्थिति का कायल मैं कभी नहीं रहा। मैंने जहां भी काम किया, टीम वर्क की तरह काम किया। अखबार में भी जब मैं था तो पहले पन्ने पर दस्तखत करके कुछ भी लिखकर छपने की वासना मुझमें नहीं रही। हिंदी में तो इसकी परंपरा ही रही है। मैं भी चाहता तो ऐसा अक्सर कर सकता था। अब टेलीविज़न के लिए काम करना मुझे रास आ रहा है। बतौर प्रोफेशन मैं यहां पहले से ज्यादा संतुष्ट हूं क्योंकि यहां लफ्फाजी और छल की गुंजाइश नहीं है। आलस्य और मिथ्या पत्रकारिता यहां नही चल सकती। जैसा कि कुछ लोग अनजान सूत्रों के हवाले से कुछ भी लिखते रहे हैं। यहां तो आप जो कुछ भी टिप्पणी करते हैं, उसे दिखाना पड़ता है। ये बात अलग है कि यहां ग्लैमर ज्यादा है।
  • आजकल हिंदी अखबारों पर संकट की हर जगह चर्चा हो रही है। आपको क्या लगता है ?
ये उनके घोर अज्ञान की अभिव्यक्ति है। हिंदी पत्रकारिता का स्वर्ण युग चल रहा है। हिंदी और भाषाई अखबारों की पाठक संख्या, पूंजी, विज्ञापन और मुनाफा लगातार बढ़ रहा है। हां, इस वृद्धि के बरबस उनके समाचार - विचार के स्तर को लेकर आप चिंतित हो सकते हैं। पर ये सब समय के साथ ठीक हो जाएगा। दूसरी ओर आज, दैनिक जागरण, अमर उजाला, राजस्थान पत्रिका, दैनिक भास्कर सहित अनेक क्षेत्रीय अखबार अपना विकास कर रहे हैं। जयपुर में भास्कर और पत्रिका की प्रतियोगिता से कीमतें नियंत्रित हुई हैं। गुणवत्ता भी सुधर जाएगी। सच तो ये है कि हिंदी पत्रकारिता अपने पैरों पर खड़ी हो रही है। हालांकि पेशे के रूप में अभूतपूर्व वृद्धि के कारण हिंदी पत्रकारिता में बड़ी मात्रा में खर - पतवार आ रहे हैं। लेकिन ये स्थिति स्थाई नहीं होगी।
  • इसी संदर्भ में कहा जा रहा है कि हिंदी अखबारों की विश्वसनीयता घट रही है।
भारतीय समाज में तुलसीदास के समय से ही त्राहि-त्राहि का भाव व्याप्त रहा है। पिछले 150 सालों से तो ये रोना और तेज हुआ है। हर आदमी बताता फिर रहा है कि संकट काल है। कम - से - कम मैं इस सामूहिक विलाप में शामिल नहीं हूं। भारतीय संस्कृति मूलत विलाप की संस्कृति रही है। नरेंद्र मोहन अखबार की बदौलत राज्यसभा पहुंच गए तो बड़ा शोर हो रहा है। 1952 से ही ये सब हो रहा है।
  • पत्रकारिता के मिशन बनाम प्रोफेशन होने पर भी बहस हो रही है। आप क्या सोचते हैं?
सरकारी सुविधाएं और पैसे लेकर निकलनेवाले अखबारों की सामाजिक प्रतिबद्धता क्या है? ये एक फरेब है, जो हिंदी में ज्यादा चल रहा है। पत्रकारिता कस्बे से लेकर राजधानी तक दलाली और ठेकेदारी का लाइसेंस देती है। मैंने किसी मिशन के तहत पत्रकारिता नहीं की। मेरी प्रतिबद्धिता अपने पेशे यानी पत्रकारिता के प्रति है। आजादी की लड़ाई के दौरान पत्रकारिता मिशन थी। इसलिए वस्तुपरक भी नहीं थी। मिशन की पत्रकारिता हमेशा सब्जेक्टिव होती है। यदि कोई पार्टी, संस्थान, आंदोलन मिशन की पत्रकारिता करे तो समझ में आती है। लेकिन नवभारत टाइम्स, जनसत्ता या हिंदुस्तान क्यों मिशन की पत्रकारिता करे?
  • मीडिया में वर्चस्व की संस्कृति को लेकर कुछ राजनेताओं ने अच्छा खासा विवाद खड़ा कर दिया है। कांशीराम द्वारा पत्रकारों की पिटाई का मामला ताजा उदाहरण है। आपने इससे अपने आपको अलग क्यों कर लिया?
उसमें जातिवादी ओवरटोन ज्यादा था। इसलिए मैं अलग हो गया। यदि आप इस पेशे में आए हैं, तो इसकी पेशागत परेशानियों का सामना करें। वरना कोई अतिसुरक्षित पेशा चुन लें। कल्पना कीजिए यही काम किसी सवर्ण ने किया होता तो क्या ऐसा ही विरोध होता? सवर्ण पत्रकारों ने इस घटना को दलित नेता को जलील करने के एक अवसर के रूप में इस्तेमाल किया। मीडिया में प्रच्छन्न सवर्ण जातिवादी वर्चस्व है। उत्तर भारत में तो अधिकतर अखबारों में सांप्रदायिक शक्तियां ही हावी हैं। पिछड़ों को सबक सिखाने का भाव आज भी ज्यादातर महान किस्म के पत्रकारों की प्रेरणा बना हुआ है। ये वर्चस्व चूंकि समस्त भारतीय समाज में है, इसलिए मीडिया में भी है।
  • साहित्य और पत्रकारिता के रिश्तों पर आपकी टिप्पणियां खासा विवाद पैदा करती रही हैं। क्या आप अब भी ऐसा मानते हैं कि साहित्यकारों ने पत्रकारिता में घालमेल कर रखा है?
भाषा की बात छोड़ दें तो विषयवस्तु या विचार के स्तर पर किसी भी साहित्यकार संपादक ने हिंदी पत्रकारिता को कोई ज्यादा मजबूत किया , ऐसा मैं नहीं मानता। लेकिन ये भी सच है कि आज हिंदी पत्रकारिता की अपनी भाषा बन रही है। सारी दुनिया में पत्रकारिता की भाषा को साहित्य ने अपनाया है। हमारे यहां उलटी गंगा बहाने की कोशिश होती रही। इसे दुराग्रह नहीं तो क्या कहेंगे कि पत्रकारिता की भाषा को साहित्यिक बना दिया जाए। आप बेशक जैसी मर्जी वैसी साहित्यिक पत्रकारिता करें। लेकिन बजट और विदेश नीति पर पत्रकारीय लेखन में आपकी दखलअंदाजी क्यों ? प्रिंट मीडिया के लिए भाषा और शैली की जरूरत है। लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि किसी बड़े विद्वान पंडित या साहित्यकार को संपादक बना दें। हिंदी में अक्सर लोग शिकायत करते हैं कि पत्रकारिता में साहित्य को तरजीह नहीं दी जाती। आप बताइए कि संसार के किस भाषा की पत्रकारिता में साहित्यिक खबरें प्रमुख रहती हैं। खबरों में बने रहने की ईच्छा वैसी ही वासना है , जैसा कि राजनेता पाले रखते हैं।
  • ऐसा कह कर आप पत्रकारिता के लिए साहित्य के महत्व को रद्द तो नहीं कर रहे हैं? क्या आप रघुवीर सहाय, अज्ञेय, धर्मवीर भारती, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, श्रीकांत वर्मा और अन्य अनेक साहित्यकारों के पत्रकारीय योगदानों को स्वीकार नहीं करते?
देखिए, एक बात साफ कर दूं कि मैं इन लोगों के प्रति बहुत श्रद्धा रखता हूं। साहित्य पढ़ना मेरी आदत है। जो लोग कविता लिखते हैं, वो बहुत कठिन और बड़ा काम करते हैं। मुझे खुद इस बात का अफसोस रहता है कि मैं कविताएं नहीं लिख पाता। ये मेरी असमर्थता है। लेकिन ये लोग सिर्फ अच्छे साहित्यकार होने की वजह से संपादक नहीं बने। ये लोग अपने समय के श्रेष्ठ पत्रकार थे। ये उस दौर में सामने आए, जब हिंदी पत्रकारिता दोयम दर्जे के हाथों में था। इन लोगों ने इसे नया चमकदार चेहरा दिया। साहित्य सृजन की एक श्रेष्ठ विद्या अजीत रायहै। जैसे चित्रकला, अभिनय, गायन, नृत्य आदि। फिर आप बहुत बड़े डॉक्टर, इंजीनियर, नेता, वकील या कुछ भी हों पर इसका मतलब ये नहीं कि आपको संपादक बना दिया जाए। महज इसलिए कि आप उस भाषा में लिखते हैं, जिसमें अखबार निकलता है।

Monday, June 20, 2011

पत्रकारों को वाजिब वेतन क्यों नहीं !

जस्टिस मजीठिया आयोग ने श्रमजीवी पत्रकारों के वेतनमान पर रिपोर्ट दी है. सबका दर्द सुनने-सुनाने वाले पत्रकारों के बड़े हिस्से को वेज बोर्ड के बारे में कुछ मालूम नहीं होता, इसका लाभ मिलना तो दूर. इसके बावजूद अखबार प्रबंधंकों ने वेज बोर्ड को मीडिया पर हमला बताकर हल्ला मचाना शुरू कर दिया है. जबकि मीडिया पर असली हमला तो पत्रकारों का भयंकर आर्थिक शोषण है. आखिर इतनी कठिन परिस्थितियों में लगातार काम करके भी एक पत्रकार किसी प्रोफेसर, सीए, इंजीनियर, डॉक्टर, आइएएस या कंप्यूटर इंजीनियर से आधे या चौथाई वेतन पर क्यों काम करे? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता चाहिए तो यह सवाल हर नागरिक और हर मीडियाकर्मी को पूछना चाहिए.
press
कोयलाकर्मियों और शिक्षक-कर्मचारियों की तरह मीडियाकर्मियों को भी अपने वेज बोर्ड के बारे में जागरूक होना चाहिए. वरना अखबार प्रबंधकों की लॉबी तरह-तरह से टेसुए बहाकर एक बार फिर पत्रकारों को अल्प-वेतनभोगी और बेचारा बनाकर रखने में सफल होगी.

आज जो अखबार प्रबंधक नये वेज बोर्ड पर आंसू बहा रहे हैं, उन्हें नहीं भूलना चाहिए कि उनके प्रोडक्ट यानी अखबार में जो चीज बिकती है- वह समाचार और विचार है. अन्य किस्म के उत्पादों में कई तरह का कच्चा माल लगता है. लेकिन अखबार का असली कच्चा माल यानी समाचार और विचार वस्तुतः संवाददाताओं और संपादनकर्मियों की कड़ी मेहनत, दिमागी कसरत और कौशल से ही आता है. इस रूप में पत्रकार न सिर्फ स्वयं कच्चा माल जुटाते या उपलब्ध कराते हैं, बल्कि उसे तराश कर बेचने योग्य भी बनाते हैं.

इस तरह देखें तो अन्य उद्योगों की अपेक्षा अखबार जगत के कर्मियों का काम ज्यादा जटिल होता है और उनके मानसिक-शारीरिक श्रम से कच्चा माल और उत्पाद तैयार होता है. तब उन्हें दूसरे उद्योगों में काम करने वाले उनके स्तर के लोगों के समान वेतन व अन्य सुविधाएं पाने का पूरा हक है. दुखद है कि मीडियाकर्मियों के बड़े हिस्से में इस विषय पर भयंकर उदासीनता का लाभ उठाकर अखबार प्रबंधकों ने भयंकर आर्थिक शोषण का सिलसिला चला रखा है.

जो अखबार 20 साल से महत्वपूर्ण दायित्व संभाल रहे वरीय उपसंपादक को 20-25 हजार से ज्यादा के लायक नहीं समझते, उन्हीं अखबारों में किसी चार्टर्ड एकाउंटेंट, ब्रांड मैनेजर या विज्ञापन प्रबंधक की शुरूआती सैलरी 50 हजार से भी ज्यादा फिक्स हो जाती है. सर्कुलेशन की अंधी होड़ में एजेंटों, हॉकरों और पाठकों के लिए खुले या गुप्त उपहारों और प्रलोभनों के समय इन अखबार प्रबंधकों को आर्थिक बोझ का भय नहीं सताता. चार रुपये के अखबार की कीमत गिराकर दो रुपये कर देने या महज एक रुपये में किलो भर रद्दी छापने या अंग्रेजी के साथ कूड़े की दर पर हिंदी का अखबार पाठकों के घर पहुंचाने में भी अखबार प्रबंधकों को गर्व का ही अनुभव होता है. लेकिन जब कभी पत्रकारों को वाजिब दाम देने की बात आती है, तब इसे मीडिया की स्वतंत्रता पर हमले जैसे हास्यास्पद तर्क से दबाने की कोशिश की जाती है.

आज इन मुद्दों पर एक सर्वेक्षण हो तो दिलचस्प आंकड़े सामने आयेंगे-
1. किस-किस मीडिया संस्थान में वर्किंग जर्नलिस्ट वेज बोर्ड लागू है?
2. जहां लागू है, उनमें कितने प्रतिशत मीडियाकर्मियों को वेज बोर्ड का लाभ सचमुच मिल रहा है?
3. मीडिया संस्थानों में प्रबंधन, प्रसार, विज्ञापन जैसे कामों से जुड़े लोगों की तुलना में समाचार या संपादन से जुड़े लोगों के वेतन व काम के घंटों में कितना फर्क है?
4. मजीठिया वेतन आयोग के बारे में कितने मीडियाकर्मी जागरूक हैं और इसे असफल करने की प्रबंधन की कोशिशों का उनके पास क्या जवाब है?
5. जो अखबार मजीठिया वेतन आयोग पर चिल्लपों मचा रहे हैं, वे फालतू की फुटानी में कितना पैसा झोंक देते हैं?

जो लोग यह कह रहे हैं कि पत्रकारों को वाजिब वेतन देने से अखबार बंद हो जायेंगे, वे देश की आखों में धूल झोंककर सस्ती सहानुभूति बटोरना चाहते हैं. जब कागज-स्याही या पेट्रोल की कीमत बढ़ती है तो अखबार बंद नहीं होते. दाम चार रुपये से घटाकर दो रुपये करने से भी अखबार चलते रहते हैं. हाकरों को टीवी-मोटरसाइकिल बांटने और पाठकों के घरों में मिठाई के डिब्बे, रंग-अबीर-पटाखे पहुंचाने से भी अखबार बंद नहीं होते. प्रतिभा सम्मान कार्यक्रमों और महंगे कलाकारों के रंगारंग नाइट शो से भी कोई अखबार बंद नहीं हुआ. शहर भर में महंगे होर्डिंग लगाने और क्रिकेटरों को खरीदने वाले अखबार भी मजे में चल रहे हैं. तब भला पत्रकारों को वाजिब मजूरी मिलने से अखबार बंद क्यों हों? इससे तो पत्रकारिता के पेशे की चमक बढ़ेगी और अच्छे, प्रतिभावान युवाओं में इसमें आने की ललक बढ़ेगी, जो आ चुके हैं, उन्हें पछताना नहीं होगा. इसलिए यकीन मानिये, मजीठिया वेतन बोर्ड के कारण कोई अखबार बंद नहीं होने जा रहा. वक्त है पत्रकारिता को वाजिब वेतन वाला पेशा बनाने का. सबको वाजिब हक मिलना चाहिए तो मीडियाकर्मियों को क्यों नहीं?

एक बात और. पत्रकारों की इस दुर्दशा के लिए मुख्यतः ऐसे संपादक जिम्मेवार हैं, जो कभी खखसकर अपने प्रबंधन के सामने यह नहीं बोल पाते कि अखबार वस्तुतः समाचार और विचार से ही चलते हैं, अन्य तिकड़मों या फिड़केबाजी से नहीं. प्रबंधन से जुड़े लोग एक बड़ी साजिश के तहत यह माहौल बनाते हैं कि उन्होंने अपने सर्वेक्षणों, उपहारों, मार्केटिंग हथकंडों, ब्रांड कार्यक्रमों वगैरह-वगैरह के जरिये अखबार को बढ़ाया है. संपादक भी बेचारे कृतज्ञ भाव से इस झूठ को स्वीकार करते हुए अपने अधीनस्थों की दुर्दशा पर चुप्पी साध लेते हैं. पत्रकारिता का भला इससे नहीं होने वाला. समय है सच को स्वीकारने और पत्रकारिता को गरिमामय पेशा बनाने का, ताकि इसमें उम्र गुजारने वालों को आखिरकार उस दिन को कोसना न पड़े, जिस दिन उन्होंने इसमें कदम रखा था.
लेखक : विष्णु राजगढ़िया